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अन्य दर्शनों में पुण्य - पाप की चर्चा : बौद्ध-दर्शन में पुण्य-पाप की अवधारणा
महात्मा बुद्ध भी शुभ-अशुभ दोनों कर्मों को मानते थे। शुभ नामक भाणवक ने भगवान बुद्ध से एक बार पूछा था - हे गौतम! मनुष्य होते हुए भी मनुष्य रुप वालों में हीनता और उत्तमता दिखाई देती है, इसका क्या हेतु है? इसका उत्तर तथागत बुद्ध ने दिया - माणवक! प्राणी कर्मस्वक है, कर्म दायाद, कर्मयोनि, कर्मबन्धु और कर्मप्रतिशरण है। कर्म ही प्राणियों को हीनता और उत्तमता में विभक्त करता है।'
सुगति या दुर्गति का पाना, कर्म के शुभ या अशुभ होने पर निर्भर है। सदाचार से सुगति और दुराचार से दुर्गति प्राप्त होती है।
बौद्ध दर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक आधारों पर 10 प्रकार के पापों का अकुशल कर्मों का वर्णन मिलता है। 1. कायिक पाप : 1. प्राणातिपाप (हिंसा) 2. अदन्तादान (चोरी),
3. कामेसुमिच्छाचार (काम भोग सम्बन्धी दुराचार) 2. वाचिक पाप : 4. मुसावाद (असत्य भाषण) 5. पिसुनावाचा (पिशुन)
___6. फरूसावाचा (कठोर वचन) 7.सम्फलाप(व्यर्थ आलाप) 3. मानसिक पाप : 8. अभिज्जा (लोभ) 9. व्यापाद (मानसिक हिंसा)
10. मिच्छादिट्ठि (मिथ्या दृष्टिकोण) अभिधम्मत्थसंगहो में 14 अकुशल चैतसिक बताये गये हैं :
मोह (चित्त का अन्धापन)
अहिरिक (निर्लज्जता) 3. अनोत्तप्पं (पाप कर्म में भय न मानना)
उद्धच्चं (चंचलता) 5. लोभो (लोभ)
दिट्ठी (मिथ्यादृष्टि) 7. . मानो (अहंकार)
'बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, आ. नरेन्द्रदेव, पृ. 475
बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग 1, पृ. 480
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