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________________ शुभतर की ओर ले जाता है। ज्ञानसहित और निदानरहित, धर्म का आचरण करने से इसका अर्जन होता है। इसका महानतम फल तीर्थंकरत्व है तथा उससे न्यूनतम फल मोक्षगामी चक्रवर्ती के रूप में होता है। पापानुबंधी पुण्य : जो पूर्व पुण्य का सुखरूप फल पाते हुए वर्तमान में पाप का अनुबंध कर रहे हैं। ऐसे प्राणी पाप करते हुए भी पूर्व पुण्योदय से सुखी व समृद्ध होते है। हिटलर, मुसोलिनी इसके ज्वलन्त प्रमाण है। आगमों में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का उदाहरण आता है, जो चक्रवर्ती होकर भी पाप का संचय कर नरक में गया। इस प्रकार जो पुण्य वर्तमान में सुख रूप फल देकर भी भविष्य को दुष्प्रवृति से अंधकार मय बनावे (दुर्गति में ले जावे) जीव को पतनोन्मुख करे, उसे पापानुबंधी पुण्य कहते हैं। पुण्यानुबंधी पाप : पुर्वभव में किये पाप रूप अशुभ कर्मों का फल पाते हुए भी जो शुभ प्रवृत्ति से पुण्य बंध करे, उसे पुण्यानुबंधी पाप कहते हैं। जैसे – चण्डकौशिक, पाप का उदय होते हुए भी भगवान महावीर के निमित्त से शुभ भावों में प्रवृत्ति कर शुभ का बंध कर लिया। पाप स्थिति में रहकर भी पुण्य का अर्जन कर लेना। पापानुबंधी पाप : पूर्वभव के पाप से जो यहां भी दुःखी रहते हैं और आगे भी दुःख का संचय करते हैं। श्वान, बिल्ली, सिंहादि व क्रूर प्राणी इसी भेद में आते है। जैसे - धीवर, कसाई, वेश्या आदि का पाप कर्म। तन्दुलमत्स्य भी इसका उदाहरण है, जो पूर्वकृत पाप कर्म के फलस्वरूप अल्पायु होकर पापमय अशुभ भावों से सप्तम नरक का बन्ध कर लेता है।' - इस प्रकार जैन दर्शन में पुण्य-पाप की चर्चा विराट रूप से की गई है। अन्य दर्शनों में भी पुण्य-पाप के अस्तित्व को स्वीकार करते है। ' (क) कर्मविज्ञान, भाग 2, वही, पृ. 452-453 (ख) नवतत्त्व प्रकरण, (पं. हीरालाल जी दुगड़) पृ. 7-8 375 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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