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प्रकृतियों के बंध का कारण कषाय की अधिकता या तीव्रता है, ये दोनों परस्पर विरोधी कारण है।
जैसे दण्ड, ध्वजा, रज्जु व उसका बन्धन ये चारों अलग-अलग है एक नहीं है, परन्तु दण्ड के साथ ध्वजा को रज्जु से बांध देने पर उस दण्ड के ध्वजा बंध जाती है। इसी प्रकार आत्मा, आस्रव, कषाय व कर्मबन्धन ये चारों अलग-अलग है, एक नहीं है। परन्तु जब कार्मण वर्गणाओं के समुदाय रूप ध्वजा, कषाय रूपी रज्जु से दण्ड रूप आत्मा के साथ बंध जाता है तो यह कर्मबन्ध कहलाता है। जिस प्रकार दण्ड के साथ ध्वजा के बंधनों में मुख्य कारण रज्जु है, इसी प्रकार आत्मा के साथ कर्म दलिक के बंध अवस्था को प्राप्त होने में मुख्य कारण कषाय है। जिस प्रकार ध्वजा के साथ उसमें रहे हुए रंग, चित्र आदि भी दण्ड से अनायास ही बंध जाते हैं उसी प्रकार कार्मण वर्गणाओं रूप आस्रव के साथ रहे हुए अनुभाग आदि भी बंध अवस्था को सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। यदि रज्जु न हो तो ध्वजा भी नहीं बंधेगी और न ध्वजा में रहे हुए रंग, चित्र ही बन्धेंगें, इसी प्रकार यदि कषाय नहीं है तो न आस्रव और न अनुभाग आदि बंध अवस्था को प्राप्त हो ।
पुण्य के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुण्योपार्जन की क्रियाएँ जब अनासक्त भाव से की जाती है, तो वे शुभ बन्ध कारण न होकर कर्मक्षय (संबर - निर्जरा ) का कारण बन जाती है। इसी प्रकार संवर- निर्जरा के कारण संयम और तप जब आसक्तभाव या फलाकांक्षा से युक्त होते हैं तो वे कर्मक्षय अथवा निर्वाण का कारण न होकर बन्धन का ही कारण बनते हैं ।
पुण्य-पाप के चार रूप :
पुण्य-पाप के स्वरूप को समझने के लिए इन चार रूपों को समझना आवश्यक है पुण्यानुबंधी पुण्य
वह दशा जिसमें पुण्य का उदय हो और साथ ही प्रवृत्ति भी उत्तम हो जिससे ऐसे पुण्य का अर्जन होता रहे कि जो उज्जवल भविष्य का कारण बने। इस प्रकार के जीव वर्तमान में सुखी रहते हैं और भविष्य में भी सुखी रहते है। यह जीव को शुभ से
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इस तरह पुण्यासव व पुण्यबन्ध में अन्तर है ।'
कन्हैयालाल जी लोढ़ा, पुण्य-पापतत्त्व, वही, पृ. 126-127
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