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3. अनुभाग बन्ध : 82 प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले __ मिथ्यादृष्टि जीवों के होता है। (अप्रशस्त प्रकृतियों का रस नीम, कांजी हलाहल
विष के समान होता है)। 4. पाप प्रकृतियों के दलिकों का बन्धना पापकर्म का प्रदेशबन्ध है।' इस प्रकार पुण्य - पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है। पुण्यासव व पुण्यबंध में अन्तर :
पुण्य का आगमन कषाय की भन्दता, संयम, त्याग, तपरूप शुभभाव व अनुकंपा, वात्सल्य, करूणा, दया, दान रूप सद्प्रवृतियों से होता है। इनके अनुभाग का वर्जन होता है। पुण्यासव में पुण्य-प्रकृतियों की स्थिति को नहीं लिया गया है, क्योंकि स्थिति कषाय रूप पाप या अशुद्ध भाव से निर्मित होती है, शुद्ध भाव से नहीं। जितना जितना पुण्य का आस्रव बढ़ता है, उतना-उतना पापकर्मों के बंधनों का क्षय होता है। पुण्यबंध :
कर्मों का आत्मा के साथ रहना बंध है, इससे कर्म सत्ता को प्राप्त होते हैं, और भविष्य में उदय आकर अपना फल देते हैं। यह स्थिति बंध शुभ या शुद्ध भाव से नहीं होता हे, कषाय से ही होता है। अतः स्थिति बन्ध अशुभ है।
आस्रव व बन्ध के हेतु 5 है - मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय, योग। इनमें से कर्मबन्ध के दो कारण माने गये हैं- योग और कषाय। योग से कार्मण-वर्गणाओं के दलिकों का अर्जन होता है, इन कार्मण वर्गणाओं का बंधन तभी होता है, जब ये कषाय से युक्त होती है। अन्यथा ये कषाय के अभाव में, स्थितिबन्ध न होने से ऐसे ही निर्जरित हो जाती है, जैसे दीवार पर फेंकी गई शुष्क बालू रेत दीवार को छूकर गिर जाती है। इस प्रकार इनका बंध अबंध समान ही है, लेकिन पाप प्रकृतियों के अर्जन के समय योग के साथ कषाय नियम से होता है, और इस कषाय से पाप प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग इन दोनों का पोषण होता है। अतः इनमें जहाँ आम्रव है वहाँ बंध नियम से है, क्योंकि इनके उपार्जन रूप आस्रव व बंध का एक ही कारण है, और वह है कषाय। पुण्य
कन्हैयालाल जी लोढ़ा, पुण्य-पापतत्त्व, वही, पृ. 35-36 (क) मिथ्यादर्शनविरति प्रमाद कषाययोगा बन्ध हेतवः", तत्त्वार्थसूत्र, 8/1 (ख) पंच आसवदारा पण्णतां तंजहा........", समवायांग, समवाय 5
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