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________________ 78-82 संस्थान (न्यग्रोध, सादि, कुब्ज, वामन, हुण्डक) जैनागमों में पुण्य और पाप के फलभोग की चर्चा विशदरूप से की गई है : उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि पुण्यशाली जीव उच्च देवलोक की स्थिति पूर्णकरके मनुष्ययोनि पाकर दशविध भोग सामग्री से युक्त स्थान में जन्म लेते है, वे 10 स्थान इस प्रकार है : 1. क्षेत्र 2. वास्तु 3. स्वर्ण 4. पशुसमूह ये चार कामस्कन्ध 1. दास-पोष्य 2. मित्रवान 3. उत्तम ज्ञाति सम्पन्न 4. उच्चगोत्र 5. सुरूप 6. स्वस्थ 7. महाप्रज्ञ 8. अभिजात 9. यशस्वी और 10 बलवान धवला में पुण्य के फलों का उल्लेख इस प्रकार किया है - तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियां पुण्य के फल है। पाप के फल बताये हैं कि - नरक, तिर्यञ्च तथा कुमानुष की योनियों में उत्पत्ति तथा जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, वेदना और दरिद्रता की प्राप्ति पाप के फल है। आचारांगसूत्र में उल्लेख है कि - जो षट्जीवनिकायों की हिंसा रूप पापकर्म करता है, वह हिंसा उसके अहित के लिए तथा अबोधि केलिए होती है। वह निश्चय ही उसके लिए कर्मों की गाँठ है, वह मोह है, वही मृत्यु है वही नरक है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - पापकर्मकर्ता अपने ही कर्मों से पीडित होता सुखविपाकसूत्र में उन विशिष्ट पुण्यशालियों का जीवनवृत्त दिया गया है, जिन्होंने अपने जीवनकाल में श्रावक व्रतों का निरतिचार रुप से पालन किया, जिस पुण्यराशि के फलस्वरूप उन्हें उच्चदेवलोक प्राप्त हुआ तथा दुःखविपाक सूत्र में ऐसे व्यक्तियों के (क) आ. जयन्तसेन, मिला प्रकाश खिला बसन्त, वही, पृ. 226-227 (ख) नवतत्त्व प्रकरण सार्थ, गाथा . 18, पृ. 96 उत्तराध्ययनसूत्र, 3/16-17-18 'काणि पुण्णफलानि “तित्थयर-गणहर ........... दालिद्दादिणि" धवला - 1/1 आचारांगसूत्र, 1/1/7 पृ. 58-59 (ब्यावर) सकम्मुणा किच्चइ पावकारी, उत्तराध्ययनसूत्र, 4/3 369 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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