________________
16.
17.
18.
यह संसार कर्म भूमि है। कर्म
उसका फल और फलभोग इस प्रकार संसार का चक्र कर्म की धूरी पर चल रहा है। जो जैसा कर्म करता है, उसे उसी के अनुरूप फल मिलता है, शुभ कर्म का फल पुण्य के रूप और अशुभ कर्म का पाप के रूप में प्राप्त होता है।
1.
जैन दर्शन में ज्ञानावरणीय आदि आठ मूलकर्म कहे गये है, उन 8 कर्मों की उत्तर प्रकृतियां 148 है। उनमें से पुण्य प्रकृतियां 42 तथा पाप प्रकृतियां 82 है। अचलभ्राता जी ने भ. महावीर से प्रश्न किया कि शुभ कर्म पुण्य है और अशुभ कर्म पाप है, किन्तु इन 148 कर्म प्रकृतियों में से कौनसी शुभ है और कौनसी अशुभ है? यह बताने की कृपा करें? तब इसका समाधान महावीर ने दिया कि सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, हास्य, पुरूषवेद, रति मोहनीय, शुभायु, शुभनाम, शुभगोत्र ये पुण्य है, इसके अतिरिक्त शेष सब पाप है । इन शुभ अशुभ प्रकृतियों को ही पुण्य पाप फल के नाम से जाना जाता है । नवतत्व में पुण्यफल भोगने के 42 प्रकार बताये हैं, वे निम्न हैं
पुण्य फल भोगने के 42 प्रकार :
4.
7.
10.
13.
16.
रति -अरति भोगों में प्रीति तथा संयम में अप्रीति रखना ।
माया - मृषावाद
कपट सहित असत्याचरण करना ।
मिथ्यादर्शनशल्य - मिथ्यात्व या असत्प्ररूपणा करना ।'
19.
-
Jain Education International
सातावेदनीय
मनुष्यानुपूर्वी
पंचेन्द्रिय जाति
आहारक शरीर
औदारिक अंगोपांग
शुभ गंध
2.
5.
8.
11.
14.
वजऋषभनाराचसंहनन 17.
20.
--
उच्चगोत्र
देवगति
औदारिक शरीर
तेजस शरीर
वैक्रिय अंगोपांग
समचतुरस्र संस्थान
शुभ रस
1
(क) कर्मविज्ञान भाग 3, आ. देवेन्द्रमुनि जी, वही, पृ. 637
(ख) स्थानांगसूत्र, 9/26, पृ. 669 (ब्यावर )
2
सायं सम्मं हार्स पुरिस-रई- सुभाउ नाम गोसाइ
पुण्णं सेरां पावं, नेयं सविवाग अविवागं । । विशेषा. गाथा, 1947
367
For Private & Personal Use Only
3.
6.
9.
12.
15.
18.
21.
-
मनुष्यगति
देवानुपूर्वी
वैक्रिय शरीर
कार्मण शरीर
आहारक अंगोपांग
शुभ वर्ण
शुभ स्पर्श
www.jainelibrary.org.