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________________ पाप तथा दूध, फल, रोटी, पदार्थों को पुण्य हो जाता। अतः यह मानना उचित है कि परिणामों की शुद्धि, अशुद्धि के कारण ही पुण्य-पाप आस्रव होते हैं।' शुभ-अशुभ परिणाम से पुण्याश्रव और पापाम्रव कैसे होता है, इसे उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं - जैसे बहुत बडे निश्चल जल वाले सरोवर में लघु तृण गिर जाने पर पूरे सरोवर में लहरें पैदा हो जाती है, वैसे ही हमारे मन, वचन या शरीर में किंचित मात्र हलचल हुई कि वहां अनन्त कर्मों का आगमन हो जाता है, उन तरंगों में यदि शुभ एवं पवित्र विचार हों तो जितने भी कर्म परमाणु है, वे सब पुण्य-प्रवृति में परिणत हो जाते है, अगर हलचल का कारण कषाय हो, क्रोध, अभिमान, मायाचार, राग-द्वेष, ईर्ष्या हो अथवा किसी भी अशुभ भाव के कारण तरंगे पैदा हुई तो उस समय आने वाले अनन्तानन्त कर्म परमाणु पाप प्रवृति में परिणत हो जाते हैं। कर्म-परमाणु स्वयं कुछ नही है, वे न शुभ है और न अशुभ है। वे तो जड पदार्थ है। जैसे मन के विचार होते हैं, वैसा ही रूप धारण करेंगे। जैसे – वस्त्र, धागा, रूई अपने मूल रूप में श्वेत है, लेकिन जिस रंग में डालेंगे, वे उसी रंग में परिवर्तित हो जाते हैं, इस क्रिया को पुण्य प्रकृति और पाप-प्रकृति कहा जाता है। यह प्रश्न अचलभ्राता जी के मन में उद्भूत हुआ कि संसार में कर्मपुद्गल ठसाठस भरे है और उनमें शुभाशुभ भेद नहीं होता है कि अमुक आकाश प्रदेश में शुभ पुद्गल और अन्यत्र अशुभ पुद्गल हो। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती है तब वे कर्मपुद्गल शुभ अर्थात पुण्य और अशुभ, पाप में परिणत कैसे होते है ? भ. महावीर ने इसका समाधान दिया है कि - "जीव के जैसे परिणाम या अध्यवसाय होते है, कर्मपुद्गल उन रूपों में परिणत हो जाते है। 2 शुभ परिणामों तथा क्रियाओं के आधार पर पुण्यास्रव का अंर्जन किया जाता है, जिन्हें पुण्य बन्ध के हेतु कहे जाते है : शास्त्रों में पुण्य कर्म के उपार्जन के 9 प्रकार बताये हैं : 1. अन्नपुण्य - भोजनादि देकर भूखे व्यक्ति की भूख मिटाना। 2. पानपुण्य - तृषापीडित व्यक्ति को पानी पिलाना। 3. लयनपुण्य – पात्र को स्थान देना। ' आप्तमीमांसा, 92-95 २ “कम्मं जोगनिमित्तं, सुभोऽसुभो वा", विशेषा, गाथा, 1935 365 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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