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इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन में कर्मों की शुभाशुभता के निर्णय का आधार मनोवृत्तियाँ ही हैं, फिर भी उसमें कर्म का बाह्य स्वरुप उपेक्षित नहीं है। निश्चयदृष्टि से तो मनोवृत्तियाँ ही कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक है, फिर भी व्यवहारदृष्टि से कर्म का बाह्य-स्वरुप भी शुभाशुभता का निश्चय करता है।
सूत्रकृतांगसूत्र में आर्द्रककुमार, बौद्धों की एकांगी धारणा का निरसन करते हुए कहते हैं - जो माँस जाने या अनजाने खाता हो, तो भी उसको पाप लगता है। यदि कोई कहे कि हम जानकर नहीं खाते, इसलिए दोष नहीं लगता, ऐसा कहना असत्य है। क्योंकि पहली बात तो यह है कि माँस हिंसा के बिना मिलता नहीं, दूसरे वह स्वभाव से ही अपवित्र है, रौद्रध्यान का हेतु है।'
यह स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का बाह्य स्वरुप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। जैनदर्शन एकांगी नहीं है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी है, वह व्यक्ति सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक मानता है और समाज सापेक्ष होकर कर्मों के बाह्य स्वरुप पर उसकी शुभाशुभता का निश्चय करता है। उसमें द्रव्य और भाव दोनों का मूल्य है। योग (बाह्य क्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, यद्यपि इसमें मनोवृत्ति ही प्रमुख कारण है।
साधारण लोग यह बात नहीं समझते है, उनके अनुसार 'अमुक काम करने से पुण्य का तथा अमूक काम करने से पाप का बन्ध नहीं होगा, इससे वे उस काम को छोड देते है, पर उनकी मानसिक क्रिया नहीं छुटती, फलस्वरूप वे पुण्य-पाप के लेप से अपने को मुक्त नहीं कर सकते है।
आप्तमीमांसा में बताया गया है कि – यदि दूसरे को सुख या दुःख देने से ही यदि पुण्य-पाप का नियम होता तो काँटे, विष, छूरी, तलवार आदि अचेतन पदार्थों को
' सूत्रकृतांगसूत्र, हेमचन्द्रजी मा., पृ. 372
जै. बौ.गी. के आ. दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डा. सागरमल जैन, पृ. 336 पुण्य-पाप तत्त्व, कन्हैयालाल जी लोढ़ा, वही, पृ. XXIX
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