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पापायव के हेतु रूप परिणाम :
सर्वार्थसिद्धि में पाप का निर्वचन किया गया है - जो आत्मा को शुभ से बचाता है, अर्थात् दूर रखता है, उससे पाप का आश्रव होता है। जैसे - असातावेदनीय आदि।
पञ्चास्तिकाय के अनुसार- जिसकी चर्या प्रमाद बहुल हो, हृदय में कलुषता हो, विषयों के प्रति लोलुपता हो, पर का संताप करता हो, दूसरों की निन्दा करता हो, वह पापास्रव करता है।
पुण्य-पाप का आस्रव वस्तु या क्रिया के आधार पर नहीं, बल्कि कर्ता के परिणाम या भावों से होता है। किसी को सुख-दुःख देने मात्र से भी पुण्य-पापाश्रव नहीं होता है, अपितु उसके पीछे कर्ता के आशय तथा उसकी प्रवृति को भी देखा जाता है। सर्वार्थसिद्धि में इस विषय को एक दृष्टान्त देकर समझााया गया है कि - जैसे कोई दयालु वैद्य किसी संयमी साधु के फोडे की चीर-फाड करके मरहम पट्टी करता है, यद्यपि उस समय उस संयमी मुनि को दुःख देने में वह वैद्य निमित्त बनता है, तथापि उस वैद्य के परिणाम उन्हें दुःख देने के नहीं है, अपितु सुख उपजाने के होते हैं। अतः दुखोत्पादन के इस कारणमात्र से पापकर्म बन्ध या पूर्वकारण रूप पापास्रव नहीं होता है, अपितु पुण्यासव एवं पुण्यबन्ध होता है। वस्तुतः पुण्य-पाप आस्रव में अन्तरंग भावों, शुभ-अशुभ परिणामों या शुभाशुभ उपयोगों की प्रधानता है।'
पण्डित सुखलालजी के अनुसार - पुण्य और पापास्रव की सच्ची कसौटी केवल ऊपरी क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय ही है।
__ शुभ-अशुभ कर्म के बंध का मुख्य आधार मनोवृत्तियाँ ही है। एक डाक्टर किसी को पीडा पहुंचाने के लिए उसका घाव चीरता है, उससे चाहे रोगी को लाभ हो जाए, परन्तु डाक्टर पाप कर्म का बन्धन करेगा। इसके विपरित वही डाक्टर करूणा से प्रेरित होकर घाव चीरता है, और कदाचित उससे रोगी की मृत्यु हो जाती है, तो वह डाक्टर अपनी शुभ-भावनाओं के कारण पुण्याश्रव या पुण्यबन्ध करता है।
| "पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्" सर्वार्थसिद्धि 6/3/320 'सण्णाओ य ति लेस्सा, इंदियवसदा य अत्तरूद्दाणि झाणं च दुप्पउत्तं, मोही पावप्पदा होंति ।। पंचास्तिकाय, मू.
140 'सर्वार्थसिद्धि, 6/11/330
जैन धर्म, मुनि सुशीलकुमार, पृ. 160
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