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'प्रवचनसार' में पुण्य और पाप का लक्षण निर्धारित किया है कि -- पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है।'
“द्रव्यसंग्रह के अनुसार"-शुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्यरूप होता है और अशुभ परिणामों से युक्त जीव पापरूप।'
इसी बात को “विशेषावश्यकभाष्य में कहा है कि जो स्वयं शुभ वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श युक्त हो वह पुण्य तथा इससे विपरीत पाप है।3।।
पापकर्म का स्थानांगवृत्ति में निर्वचन किया गया है – “जो आत्मा को पतन में ग्रथित कर देता है, आत्मा का पतन कर देता है, अर्थात् आत्मा के आनन्दरस को सोख लेता है, शुष्क कर देता है, नष्ट कर देता है, वह पाप है।"
पुण्यासव के कारण :
. पंचास्तिकाय के अनुसार जिस जीव में प्रशस्त राग है, जिसके परिणाम अनुकम्पा से युक्त है, जिसके चित्त में कलुषता नहीं है, उस जीव के पुण्यास्रव होता है।'
__ मूलाचार में बताया है कि -- जीवों के प्रति अनुकम्पा, शुद्ध, मन, वचन, काय की क्रिया, सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्म आस्रव के कारण है। इसके विपरीत जीवों के प्रति निर्दयता, अशुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया तथा मिथ्यादर्शन ज्ञान रूप उपयोग पापासव के कारण है।
प्रवचनसार के अनुसार पुण्यरूप पुद्गल के बन्ध का कारण होने से शुभ परिणाम पुण्य है, और पापरूप पुद्गल के बन्ध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप है।'
' 'सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं दि, भणियमण्णेसु । प्रवचनसार, गाथा 181 'सुह-असुह भावजुत्ता, पुण्ण-पावं हंवति सलु जीवा। द्रव्य संग्रह 38/158 'सोहण वण्णाई गुणं, सुभाणुभावं च जं तयं पुण्णं, विवरीय मओ पावं ।। विशेषा. गाथा 1940 पाशयति गुण्डयति आत्मानं पातयति, वात्मनः आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम्, स्थानांगवृत्ति, स्थान 1 रागो जरस परसत्यो, अणुकंपासंसिदो य परिणामो। वित्तम्मि नस्थि कलुसं, पुण्णं जीवरस आसवेदि।। पंचारितकाय, गाथा 135 ° पुण्णस्सा सव भेदा, अणुकंपा सुद्ध एवं उपओगो: मुलावार, गाथा 235 तत्र पुण्य पुद्गल बन्ध कारणत्वात् शुभ-परिणामः पुण्यम् अशुभ परिणामः पापम्। प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका, पृ. 181
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