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का लाघव है और शुभ कर्मों का उदय है।' आचार्य भयदेव के अनुसार, 'पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करें। आचार्य अभयदे की दृष्टि में पुण्य आध्यात्मिक साधना में सहायक तत्व है। मुनि सुशीलकुमार जी के अनुसार, 'तुल्य मोक्षार्थियों की नौका के लिए अनुकूल वायु है, जो नौका को भवसागर से शीन्द्र पार करा देती है।" पुण्य एक प्रकार के शुभ पुद्गल हैं, जिनके फलस्वरूप आत्मा को लौकिक सुख प्राप्त होता है और आध्यायिक साधना में सहायता प्राप्त होती है। धर्म की प्राप्ति सम्यक् श्रद्धा, सामर्थ्य, संयम और मनुष्यता का विकास भी पुण्य से ही होता है।
पाप का अर्थ है ... वैयाक्तिक संदर्भ में जो आत्मा को बन्धन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्मशक्तियों को क्षय करे, वह पाप है। जिस आचार, विचार और उच्चार से अपना और पर का अहित हो, और जिसका फल अनिष्ट प्राप्ति हो, वह पाप कहलाता है।"
सामाजिक संदर्भ में जो परपीडा या दूसरों के दुःख का कारण हो, वह पाप है।
नैतिक जीवन को दृष्टि से वे सभी कर्म जो स्वार्थ-घृणा या अज्ञान के कारण दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किये जाते हैं, वे पाप कर्म हैं। पुण्य और पाप आचव के रूप में :
___ जब मानसिक, वाचिक या कायिक कोई भी प्रवृति करते समय जीव शुभभावों से युक्त होता है तब पुण्य कर्म के आसव का बीज बोता है और जब अशुभ भावों से युक्त होता है तब पाप कर्म के आसव का वीज होता है। यही पुण्याश्रव और पापाश्रव है। पुण्य-पापासव का लक्षण :
तत्वार्थसूत्र में कहा हैं -- शुभः पुण्यस्य। अशुभः पापस्य। 'शुभयोग पुण्य के आस्रव का कारण हैं और अशुभयोग पाप के आसव का कारण हैं।"
। योगशास्त्र, 4/107 'जैन धर्म, गुनि सुशीलकुमार, पृ. 84
अभिधान राजेन्द्र कोष, खण्ड 5, पृ. 876 *जैन धर्म, सुशीलकुमार, वही, पृ.85 कन्हैयालाल जी लोढा, पुण्य-पाप तत्व, प्राकृत आरती अकादमी, जयपुर स. 1999, पृ.. प्रस्तावना पटर जैन बौ. गीत, के आ.द. का तुलनात्मक अध्ययन, सागरमल जैन, पृ.332 तत्वार्थसूत्र, अ. 6, रात्र 314
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