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1. लोक 2. अलोक 3. जीव
4. अजीव 5. धर्म 6. अधर्म 7. बन्ध
8. मोक्ष 9. पुण्य 10. पाप 11. आस्रव
12. संवर 13. वेदना 14. निर्जरा 15. क्रिया
16. अक्रिया 17. क्रोध 18. मान 19. माया
20. लोभ 21. राग 22. द्वेष
23. चतुरंग संसार 24. सिद्धस्थान 25. देव 26. देवी 27. सिद्धि
28. असिद्धि 29. साधु
30. असाधु 31, कल्याण और 32. अकल्याण' सूत्रकृतांग के ही द्वितीय श्रुतस्कंध में यह सूची संकुचित रुप में मिलती है, उसमें 12 तत्त्वों को स्वीकार किया --
1. जीव
2. अजीव 6. संवर 10. अधिकरण
3. पुण्य 7. वेदना
5. आसव 9. क्रिया
4. पाप 8. निर्जरा 12. मोक्ष
11. बन्ध
जैनागमों में 9 तत्वों का निर्देश है1. जीव 2. अजीव
3. पुण्य 4. पाप 5. आस्रव 6. संवर
7. निर्जरा 8. बंध 9. मोक्ष तत्व।
जब कि तत्वार्थसूत्र में 7 तत्वों का उल्लेख है, उनके अनुसार 'शुभ कर्मों का आगमन पुण्यासव और अशुभकर्मों का आगमन पापाप्रद है, तथा शुभकर्मों का बन्ध पुण्यबन्ध और अशुभकर्मों का बन्ध पापबन्ध है, इस दृष्टि से पुण्य और पाप इन दोनों तत्त्वों का अन्तर्भाव आम्रद तथा बन्ध में किया गया है। जैन आचार्यों ने पुण्य और पाप दोनों को परिभाषित किया है
पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं चैतसिक स्तर पर समत्व की स्थापना होती है। आचार्य हेमचन्द्र ने पुण्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि - पुण्य अशुभ कर्मों
' सूत्रकतांग 2/5/765-78 * सूत्रकृतांग, वही, 21715
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