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देवों में केवल सुख का नारकों में दुःख का । इसलिए पुण्य और पाप दोनों को स्वतंत्र मानना चाहिए।'
पुण्य और पाप को एक मानकर भी देवों में सुखातिशय तथा नरक में दुःखातिशय का अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि जब पुण्यांश की वृद्धि और पापांश की हानि हो तब सुखातिशय का अनुभव तथा जब पापांश की वृद्धि व पुण्यांश की हानि हो तब दुःखातिशय का अनुभव हो सकता है।
यदि पुण्य व पाप सर्वथा एक रूप हो तो एक की वृद्धि होने पर दूसरे की भी होनी चाहिए। जैसे राम की वृद्धि होने पर लक्ष्मण की वृद्धि नहीं होती, इससे सिद्ध होता है कि वे दोनों भिन्न है । पुण्य की वृद्धि होने पर पाप की वृद्धि नहीं होती, अतः दोनों भिन्न है। एकान्त रूप से भिन्न भी नहीं है, कर्मरूप से अभिन्न भी है।
वेदों में यह बताया है 'संसार में केवल पुरूष ही है, तथा उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है, इसका अभिप्राय यह नहीं कि पुण्य-पाप का अस्तित्व नहीं है। यदि पुण्य-पाप नहीं हो तो स्वर्ग के उद्देश्य से वेदों में जो अग्निहोत्रादि बाह्य अनुष्ठानों का विधान है, वह गलत हो जाता है, तथा जगत में दान का फल पुण्य और हिंसा का फल पाप माना जाता है, यह मान्यता भी असंगत हो जाती है। अतः पुण्य-पाप के कारण ही जीव को सुख और दुःख की प्राप्ति होती है तथा दोनों स्वतंत्र तत्व है । 2
जैन कर्मसिद्धान्त में भी पुण्य और पाप का विवेचन मिलता है, जिन्हें शुभ कर्म और अशुभ कर्म के नाम से जाना जाता है, जिसका वर्णन आगे परिच्छेद में किया गया है ।
जैन कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में पुण्य-पाप की प्रकृतियों का स्वरूप :
जैन धर्म-दर्शन में तत्त्वों को श्रद्धा का विषय माना गया है । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है कि तत्त्व श्रद्धान ही सम्यक्दर्शन है। तत्त्वों की चर्चा सर्वप्रथम सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के पाँचवे अध्ययन में की गई है, उसमें 32 तत्त्व बताये हैं
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जह वेगसरीराम्मि वि, साराऽसारापरिणामयामइ । अविसिट्ठो आहारो, तह कम्म सुभाऽसुभविभागो ।। विशेषा,
भाष्य, गाया - 1945
2 असई बहि पुण्ण पावे, जमग्गिहोत्ताइं सग्गकामस्स । तदसंबद्धं सव्वं, दाणाई फलं च लोअम्मि ।। विशेषा. गाथा
1947
3 " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं”, तत्त्वार्थसूत्र, 1/2
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