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ही कर्म पुद्गलों को शुभ - अशुभ रूप में परिणत कर देता है। जीव के जैसे अध्यवसाय होते हैं वैसे कर्म भी परिणत हो जाते हैं।'
जैसे कि समान आहार होने पर भी परिणाम और आश्रय की विशेषता के कारण विभिन्न परिणाम दिखते है। गाय और सर्प को एक ही प्रकार का आहार दिया जाये, लेकिन गाय का आहार दूध रूप में तथा सर्प का विष रूप में परिणत होता है। वैसे ही शुभ या अशुभ अध्यवसाय वाले कर्म पुद्गल अपने आश्रय भूतजीव से आकृष्ट होकर शुभ या अशुभ रूप में परिणत हो जाने का सामर्थ्य रखते है तथा आश्रयभूत जीव में भी उन उन कर्म पुद्गलों को ग्रहण करके शुभ या अशुभ रूप में (पुण्य-पाप) परिणत कर देने की शक्ति है।
___ कर्म- पुद्गल के ग्रहण करते समय जीव कर्म प्रदेशों में अपने अध्यवसाय के कारण सब जीवों से अनन्त गुणा रसविभाग उत्पन्न करता है। जैसे कि आठ कर्म है उनमें से सबसे थोडा भाग आयु कर्म का है, उससे अधिक किन्तु परस्पर भाग नाम और गोत्र का है, उससे अधिक भाग ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय का है, किन्तु तीनों का परस्पर भाग समान है इसी कारण स्थिति भी एक समान 30 कोटाकोटी सागरोपम की है। इनसे अधिक भाग मोहनीय का है, यही कारण है कि 10 वे गुणस्थान तक इसका साम्राज्य रहता है, सर्वाधिक भाग वेदनीय का है। वेदनीय सुख-दुःख का कारण है, अतः उसका भाग सर्वाधिक है।'
___ एक ही शरीर में एक रूप आहार लेने पर भी उसमें सार व असार परिणाम तत्काल हो जाते है। वैसे एक ही जीव गृहीत कर्म पुद्गलों को शुभ-अशुभ परिणामों के द्वारा पुण्य और पाप रूप में परिणत कर देता है। इससे यह सिद्ध होता है पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र है। व्यक्ति को या तो मात्र सुख का अनुभव होता है या मात्र दुःख का। जैसे
' गिण्हइ तज्जोगं चिय रेणुं परिसो जहा काअब्भंगे। एगक्खन्तो गाढ़ जीवो सप्पएसेहि।। विशेषा. गा. 1941 ' अविसिळं चिय तंसो, परिणामाऽऽसयं भावओ खिप्पं। कुरुते सुभमसुभं वा, गहणे जीवों जहाऽऽहारं। विशेषा. गा.
1943 ' गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएइ गुणे सपच्चयओ सव्वजीवाणंतगुणे, कम्मपएसेसु सव्वेसु।। कर्मप्रकृति -
बन्धनकारण, गाथा -29 बन्धशतक, गाथा 89-90
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