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________________ रहेगा। सर्वथा भेद भी नहीं मान सकते हैं, क्योंकि दोनों में एक को वस्तु तथा दूसरे को अवस्तु मानना पडेगा। अनुरूपता और अननुरूपता सापेक्षता से होती है। जिस प्रकार नीलादि पदार्थ मूर्त होने पर भी अमूर्त तत्प्रतिभासीज्ञान को उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार मूर्त कर्म भी अमूर्त सुखादि को उत्पन्न करता है। यह भी तर्क हो सकता है मूर्त कर्म भी दृष्टिगत नहीं है तब दृष्ट अन्न, जल आदि को सुख-दुःख का कारण मान सकते है? किन्तु हम देखते हैं कि अन्नादि दृष्ट मूर्त साधन समान होने पर भी उनका फल सुख-दुःखादि समान नहीं होता, जैसे कि अन्न से एक व्यक्ति को आरोग्य लाभ मिलता है, वहीं उसी अन्न से दूसरा व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार दृष्ट अन्न समान होने पर भी सुख-दुःखादि रूप फल में जो विभिन्नता दिखती है, वह कारण सहित है। अतः कर्म अदृष्ट होते हुए भी मूर्त है तथा हेतु के अनुरूप पुण्य पाप भी मूर्त है, जब कि उसके फल अमूर्त हैं। ऐसा भी हो सकता है कि देहादि कार्य के अनुसार कर्म मूर्त हो तथा सुख-दुःखादि कार्य के अनुसार अमूर्त हो। पर कार्य के मूर्त या अमूर्त होने पर उसके सभी कारण मूर्त या अमूर्त होने चाहिए, यह आवश्यक नहीं है। सुखादि अमूर्त कार्य का कारण केवल कर्म ही नहीं है, आत्मा भी है। दोनों में अन्तर इतना है कि आत्मा समवायीकारण है तथा कर्म समवायी कारण नहीं है। अतः सुख-दुःखादि के अमूर्त होने से उनके समवायी कारण रूप आत्मा की अमूर्तता का अनुमान हो सकता है। अतः - देहादिकार्य के मूर्त होने से उसके कारण कर्म को भी मूर्त मानना चाहिए।' संसार में कर्म पुद्गल ठसाठस भरे हैं और उनमें शुभाशुभ का कोई भेद नहीं होता, अर्थात् ये आकाशप्रदेश शुभ पुद्गलों के धारक है या ये अशुभ पुद्गलों के धारक है? ऐसी अवस्था में जीव पुण्य-पाप रूप पुद्गलों को कैसे ग्रहण करता है? इसका समाधान है कि जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगाकर निर्वस्त्र होकर खुले स्थान पर बैठे तो तेल के परिमाण के अनुसार उसके पूरे शरीर पर मिट्टी चिपक जाती है, वैसी ही राग-द्वेष युक्त जीव कर्म वर्गणा में रहे हुए कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है, जब तक जीव ने कर्म पुद्गलों को ग्रहण नहीं किया, तब तक वे पुद्गल शुभ या अशुभ इन दोनों विशेषणों से विशिष्ट नहीं होते । जैसे ही जीव ग्रहण करता है वैसे गणधरवाद, वही, पृ 139-142 357 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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