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देह आदि की रचना कारण के अभाव में नहीं होती है, क्योंकि घट के समान कार्य रुप है। देहादि रचना का जो कारण है, वह कर्म है। शुभ देहादि, धन, वैभव, कीर्ति, आदि की प्राप्ति होना पुण्य कर्म और कुरूपता, निर्धनता, अपकीर्ति होना पाप कर्म का कार्य है।' पुण्य- पाप रूप अदृष्ट कर्म की सिद्धि :
प्रश्न यह उठता है कि जब देह को उत्पन्न करने वाले माता-पिता है, तब अदृष्ट कर्म को मानने की क्या आवश्यकता है? इसका समाधान भ. महावीर ने दिया कि - एक ही माता के दो पुत्र होते है किन्तु एक रूपवान और दूसरा कुरूप होता है, जबकि दृष्ट कारण समान है, तब उस विचित्रता के लिए अदृष्ट कारण कर्म को मानना आवश्यक है, कर्म के कारण से ही विभिन्नता व विचित्रता देखी जाती है। यह कर्म भी दो प्रकार का है- पुण्य और पाप। सुन्दरता, शुभ देह, पुण्यकर्म के कारण और कुरूपता पाप कर्म के कारण मिलती है। इस प्रकार पुण्य और पाप ये दो भेद स्वभाव से ही भिन्नजातीय सिद्ध होते है। कारण रूप मानने पर पुण्य-पाप की सिद्धि :
सुख और दुःख दोनों कार्य है, दोनों को उसके अनुरूप कारण चाहिए। जैसे घट का अनुरूप कारण मिट्टी के कण है, तथा वस्त्र का अनुरूप कारण तन्तु है, वैसे ही सुख का अनुरूप कारण पुण्य कर्म तथा दुःख का पापकर्म है। इस प्रकार दोनों में भिन्नता हैं।' पुण्य-पाप रूपी है या अरूपी?
जैसे सुख दुःख आत्मा के परिणाम होने से अरूपी है, वैसे ही सुख-दुःख के कारण पुण्य तथा पाप कर्म भी अरूपी होना चाहिए ? जबकि कर्म रूपी है, अतः प्रश्न है कि कार्य के अनुसार कारण होना चाहिए, तब पुण्य-पाप रुपी है या अरुपी?
इस शंका का समाधान श्रमण भ. महावीर ने इस प्रकार दिया कि - यह आवश्यक नहीं कि कारण सर्वथा कार्य के अनुरूप होता हो। कारण और कार्य दोनों को सर्वथा अनुरूप मानने पर दोनों के सभी धर्म समान मानने पडेंगे, जिससे दोनों में भेद नहीं
'तं चिय देहाइणं, किरियाणं पि य सुभासुभताओ। पडिवज्ज पुण्णपावं, सहावओ भिन्न जाईयं ।। विशेषा. गा.
1920 2 सुह-दुःखाणं कारणमणुरूवं कज्जभावओऽवस्सं। परमाणवो घडरस व कारणमिह पुण्णपावाइं।। विशेषा गा. 1921
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