________________
घटित नहीं होती, इसका कारण यह है कि यह उत्पन्न स्वभाव कैसा है? वह वस्तु रुप है अथवा निष्कारण है या वस्तुधर्म है?' इन तीनों विकल्पों के अनुसार स्वभाव को वस्तु नहीं माना जा सकता।
इन प्रश्नों का समाधान इस प्रकार है - स्वभाव को वस्तु नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह अनुपलब्ध है, यदि वस्तु मानते हैं तो प्रश्न उठता है कि - वह मूर्त है अथवा अमूर्त? यदि मूर्त मानते हैं तब स्वभाव और कर्म में कोई अन्तर नहीं है, तथा अमूर्त मानते है तो उपकरण रहित होने से वह शरीर आदि कर्मों का उत्पादक नहीं कहला सकता, जैसे कुम्भकार दण्डादि उपकरणों के अभाव में घट का निर्माण नहीं कर सकता। वैसे ही स्वभाव भी उपकरण रहित होने से विचित्रता का उत्पादक नहीं हो सकता। अतः स्वभाव को वस्तु नहीं माना जा सकता है।
यदि स्वभाव को वस्तु के धर्म के रूप में स्वीकार किया जाये तो जीव और कर्म का पुण्य और पाप रूप परिणाम ही सिद्ध होता है। यदि स्वभाव को निष्कारण माने तो भी सम्यक नहीं है, क्योंकि निष्कारण का अर्थ यह हुआ कि कार्योत्पत्ति कारणवशात् नहीं है। ऐसा होने पर सभी वस्तुओं के समान खर-विषाण की उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती? क्योंकि खर-विषाण में कुछ भी कारण नहीं है। जबकि उत्पत्ति निष्कारण नहीं मानी जा सकती। यह सिद्ध होता है कि - सुख-दुःख रूप आदि जगत् में जो विचित्रता है वह स्वभाव से नहीं है, अपितु पुण्य पापात्मक रूप कर्म से है। अनुमान द्वारा पुण्य - पाप कर्म की सिद्धि :
__ पुण्य और पाप की सिद्धि अनुमान से भी होती है, जैसे कृषि क्रिया का कार्य शालि-यव गेहूँ आदि सर्वमान्य है, उसी प्रकार दान आदि क्रिया तथा हिंसादि क्रिया है, ये कारण रुप है तब इनका कोई कार्य होना चाहिए (कार्य कारण का एक दूसरे से सम्बन्ध है)। वह कार्य अन्य कुछ नहीं है, बल्कि जीव और कर्म का पुण्य एवं पापरूप परिणाम है। इस कारणानुमान से दानादि क्रिया का कार्य पुण्य और हिंसादि क्रिया का कार्य पाप है। इन दोनों को कार्यरूप मे स्वीकार करना आवश्यक है।
' योऽयं स्वभाव उदितः स च कीदृशोऽस्ति।। महावीर देशना, श्लोक 7, पृ. 209, २ (क) गणधरवाद (प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर) पृ. 136-137 (ख) मुर्तोथवा नभ इवायममूर्त रुपः, महावीर देशना, श्लोक 7, पृ. 209
355
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org