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________________ जो पुण्य-पाप को संकीर्ण रूप से मानते है उनका एक तर्क है कि किसी पुरूष के मन में दान देने का विचार उत्पन्न हुआ, वह विचार यदि कुपात्रदान का है तब उस पुरूष का मनोयोग शुभाशुभ मिश्र रुप है क्योंकि दान देने की भावना शुभ है किन्तु अविधिपूर्वक रुप दान अशुभ योग का सूचक है उसी प्रकार अविधिपूर्वक दान देने की प्रेरणा करने वाले व्यक्ति का वचन योग भी शुभाशुभ उभय रूप होगा, तथा जो व्यक्ति जिन पूजा अथवा वन्दन विधिपूर्वक सम्यक प्रकार से नहीं करता है, उसकी चेष्ठा भी शुभाशुभ मिश्रित काय योग है। इस प्रकार तीनों योग उभयरूप में हुए । 1 1 इस तर्क का समाधान यह है कि योग दो प्रकार के है द्रव्य योग व भावयोग । द्रव्ययोग अर्थात् मन वचन काय का परिस्पन्दन, तथा भावयोग का तात्पर्य अध्यवसाय है द्रव्ययोग में शुभाशुभरूपता हो सकती है किन्तु भावयोग में उभय रूपता नहीं होती है 1 द्रव्ययोग भी व्यवहारनय से उभयरूप है निश्चयनय की अपेक्षा से वह एक समय में शुभ या अशुभ रूप ही होता है अतः जब अध्यवसाय शुभ हो तब पुण्यकर्म का और जब अध्यवसाय अशुभ हो तब पापकर्म का बन्ध होता है। उभयरूप अध्यवसाय नहीं होने से उभयरूप कर्म भी सम्भव नहीं है । भावयोग को शुभाशुभ उभयरूप नहीं मानने का कारण यह है कि भावयोग ध्यान और लेश्यारूप है। ध्यान एक समय में धर्म और शुक्ल रूप शुभ अथवा आर्त- रौद्र रूप अशुभ में होता है। ध्यान निवृति होने पर लेश्या भी तेजस, पद्म-शुक्ल आदि कोई एक शुभ अथवा कृष्ण, नील, कापोत आदि एक अशुभ होती है । किन्तु उभयरूप लेश्या नहीं होती । अतः भावयोग के निमित्त से बंधने वाला कर्म भी पुण्यरूप शुभ अथवा पापरूप अशुभ ही होगा । एतदर्थ पाप और पुण्य को स्वतन्त्र मानना उपयुक्त है । ' पुण्य-पाप को न मानने वाले स्वभाववाद का खण्डन : स्वभाववादी मानते हैं कि स्वभाव ही समस्त भवप्रपंच है तथा कर्म या पुण्य-पाप जैसा वस्तु ही नहीं है, किन्तु संसार में जो सुख दुःख की विचित्रता है, वह स्वभाव से - (क) कम्मं जोगनिमित्तं, सुभोऽंसुभो वा स एगसमयम्मि। होज्ज न उ उभयरूवो, कम्मं बितओ तयणुरुवं ।। विशेषा. गा. 1935 (ख) ज्ञानं सुभमसुभं वा न उ सीसं जं च प्राण विरमेवि लेसा सुभाऽसुभा वा सुभगसुभ तओ कम्मं ॥ विशेषा 1 JIT. 1937 Jain Education International 354 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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