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मिट्टी का नहीं बन जाता है, वैसे ही पुण्य से जो कुछ निष्पन्न हो वह शुभ ही होना चाहिए, अशुभ किसी भी दशा में नहीं। अतः पाप को अशुभ का कारण मानना उपयुक्त
एकान्त पापवाद का निरास : पुण्यसिद्धि :
एकान्त पापवाद का निरसन करते हुए विशेषावश्यकभाष्यकार बताते हैं कि जैसेपुण्य के अपकर्ष (कम होने) से दुःख नहीं हो सकता, वैसे ही पाप के अपकर्ष से सुख नहीं हो सकता। यदि अधिक मात्रा वाला विष बहुत हानिप्रद होता है, तो अल्पमात्रिक विष कम हानिप्रद होगा, किन्तु वह स्वास्थ्य लाभ कैसे दे सकता है? इसी प्रकार कहा जा सकता है कि अल्प पाप अल्प दुःख देगा, किन्तु सुख के लिए पुण्य को मानना आवश्यक है।
पुण्य पाप दोनों एक नहीं है :
कई विचारकों का यह मन्तव्य है कि - यदि पाप और पुण्य को एक मान लिया जाये तब उत्कर्ष-अपकर्ष सम्बन्धी विचारणा का विवाद ही नहीं रहेगा, पर यह कथन युक्ति संगत नहीं है क्योंकि कोई भी कर्म पुण्य-पाप उभयरूप नहीं हो सकता। कर्म का कारण है योग। योग एक समय में शुभ या अशुभ रुप में होता है किन्तु शुभाशुभ उभयरूप नहीं हो सकता है। अतः उसका कार्य भी पुण्य रूप शुभ या पापरूप अशुभ होगा, मिश्रित नहीं।
कर्मबन्ध के हेतु 5 है : मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इन पाँच हेतुओं में से योग एक ऐसा कारण है जिसका कर्मबन्ध के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। जहाँ कर्मबन्ध होता है वहाँ योग अवश्य पाया जाता है। योग तीन प्रकार के है - मन, वचन, और काया योग। ये योग एक समय में शुभ रूप में अथवा अशुभ रूप में ही हो सकते है।
(क) तह बज्झ साहण प्पगरिसंग, भावादि हण्णया न तयं । विवरीय बज्झ साहण, बलप्पगरिसं अवेक्खेज्जा।।
विशेष्या गा. 1932 (ख) देहो नावचयकओ पुण्णुक्करिसे व मुत्तिमतोओ। होज्ज व स हीणतरओ, कहम सुमयरो महल्लोय।।
विशेष्या गा. 1933 (ग) गणधरवाद (प्राकृत भारती अकादमी) पृ. 142 - 143 एवं चिय विवरीयं, जोएज्जा सव्व पाव पक्खे वि। न य साहारण रूवं, कम्मं तक्कारणा भावा ।। विशेषा. भाष्य गा. 1934
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