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भिन्न कार्य है, किन्तु दोनों का अनुभव एक साथ नहीं होता, इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए । अतः सुख का कारण पुण्य है और दुःख का कारण पाप है । '
स्वभाववाद
कतिपय दार्शनिकों का मन्तव्य है कि पुण्य-पाप जैसे कोई पदार्थ इस संसार में नहीं हैं। पुण्य-पाप की कल्पना करनाव्यर्थ है। बल्कि सभी शरीरधारियों का सुख - दुःख रूपी भवप्रपंच स्वाभाविक है, "स्वभाविक तनुभृतमिह दुःख सौख्ये" । 2
इन पाँच मतों में मतभेद के कारण अचल भ्राता जी के मन में दुविधा के भाव थे कि पाप-पुण्य को माना जाए या ना माना जाए? पुण्य-पाप को स्वतंत्र रुप में माने अथवा सम्मिलित रुप में मान्य करें?
विशेषावश्यकभाष्य में वर्णित अचलभ्राता जी की शंकाओं के श्रमण भ. महावीर द्वारा दिये गए समाधान इस प्रकार है :
एकान्त पुण्यवाद का निरास
पाप की सिद्धि :
I
जीव को जिस प्रकृष्ट दुःख का अनुभव होता है, उसका कारण केवल पुण्य का अपकर्ष ही नहीं है । यदि दुःख पुण्य के अपकर्ष (कम होने) से होता हो तब उसमें सुख के साधनों का अपकर्ष ही कारण होना चाहिए, दुःख के साधनों का प्रकर्ष आवश्यक नहीं है । किन्तु दुःख के प्रकर्ष में सुख साधनों की कमी तथा दुःख के साधनों की वृद्धि दोनों बाते जरूरी है । पुण्य की न्यूनता से इष्ट साधनों की कमी हो सकती है किन्तु अनिष्ट साधनों की वृद्धि कैसे हो सकती है ? इसलिए उनका दूसरा स्वतंत्र कारण पाप को मानना ही चाहिए ।
यदि पाप के समान कोई स्वतंत्र पदार्थ न हो तो शरीर रूपी होने के कारण पुण्य . के उत्कर्ष से ही उसे विशाल होना चाहिए तथा अपकर्ष से लघु । वस्तुतः ऐसा नहीं होता है, चक्रवर्ती की अपेक्षा हस्ति का शरीर वृहद् है, फिर भी पुण्य का प्रकर्ष चक्रवर्ती में है, हाथी में नहीं। जबकि हाथी का शरीर वृहद् है । पुण्य अल्प अथवा तीव्र हो तो भी शुभ ही रहता है। जैसे अल्प सुवर्ण से घट छोटा बनता है, किन्तु वह सुवर्णघट परिवर्तित होकर
1 स्वतंत्रे हयानां पुण्य-पापे तत्कार्यभूतयोः सुखदुःखयार्योग पद्येनुभवा भावात् अतोडन्नैव भिन्न कार्यदर्शनेन तत्कारण भूतयोः पुण्य पापर्यो भिन्नताऽनुभीयत । विशेषावश्यकभाष्य टीका पृ 794
2 "स्वाभाविके तनुभृतामिह दुःख- सौख्ये " महावीर देशना, श्लोक 4, पृ. 206
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