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निश्चित है, वैसे ही सर्वथा पुण्य का क्षय होने पर मोक्ष होता है। अतः पुण्य को ही मानना चाहिए।' पापवाद-मात्र पाप ही है पुण्य नहीं
कुछ विद्वानों का मत है कि – “सौख्यासुखप्रदमिंद ननुपाप मेव" अर्थात् जीव को सुख दुःख की प्राप्ति का हेतु पाप है। वे मात्र पाप को मानते हैं, पुण्य को नहीं। उनका मन्तव्य है कि अपथ्याहार की वृद्धि से रोग की वृद्धि तथा अपथ्याहार कम करने से आरोग्य लाभ होता है, वैसे ही पाप की वृद्धि से अधमता अथवा दुःख की वृद्धि और पाप के अपकर्ष से सुख की वृद्धि होती है। पाप के परम प्रकर्ष से नरक का दुःख प्राप्त होता है और पाप न्यूनतम हो तब देवों का उत्कृष्ट सुख मिलता है। पाप के सर्वथा नाश होने से मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार जब एक मात्र पाप को मानने से सुख - दुःख घटित हो सकते हैं, तब फिर पुण्य को पृथक मानने की आवश्यकता ही नहीं है।' पुण्य-पाप दोनों एक है
कुछ विद्धानों का मन्तव्य है कि पुण्य अथवा पाप ये दोनों स्वतंत्र तत्त्व नहीं है, किन्तु दोनों साधारण तथा एक ही वस्तु हैं। 'ध्रुवमेकमेवं' जैसे कि अनेक रंग मिलने से एक साधारण संकीर्ण वर्ण बनता है, जैसे - विविध रंगी मेचक मणि एक ही है, जिस प्रकार सिंह और नर का रूप धारण करने वाला नरसिंह एक ही है, वैसे ही सुख और दुःख रूप फल देने वाला कोई एक ही साधारण तत्त्व है। यदि सुख वृद्धि होती है तब पुण्य और दुःख की वृद्धि होती है तब पाप कहलाता है। पुण्यांश का अपकर्ष होने पर पाप
और पापांश का अपकर्ष होने पर पुण्य कहलाता है। पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र है
कुछ विचारकों का मन्तव्य हे कि “पृथक-पृथगि में इति” अर्थात् पुण्य और पाप ये दोनों स्वतंत्र वस्तुएं है। इस पक्ष के समर्थन में वे युक्ति देते हैं कि सुख और दुःख दोनों
पुण्णुक्करिसे सुभया, तरतम जोगावगरिसओ हाणी। तस्सेव खए मोक्खो, पत्थाहारोवमाणाओ" - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1909 महावीर देशना, श्लोक 3, पृ. 205 पावुक्करिसेऽहमया, तरतमजोगावगरिसओं सुभया। तस्सेव खए मोक्खो, अपत्थभत्तोवेमाणाओं" विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1910 * साहारण वण्णदिव, अह साहारण महेगमत्ताए। उक्करिसावगरिसओं, तस्सेव य पुण्णपाववखा।।। विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1911
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