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2. केवल पाप ही है पुण्य नहीं है, क्योंकि पाप की वृद्धि होने पर दुःख तथा हानि
होने पर सुख की प्राप्ति होती है। 3. पुण्य और पाप साधारण वस्तु है, भिन्न-भिन्न नहीं। 4. पुण्य और पाप भिन्न-भिन्न है। 5. स्वभाव ही सब कुछ है, पुण्य - पाप कुछ नहीं है।'
इन शंकाओं का समाधान भ. महावीर ने किया, तथा यह सिद्ध किया कि पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र तत्व है, विशेष्यावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि ने इस चर्चा को विस्तार रूप से उल्लेखित किया है। इस प्रकार उन विविध मतों का विवेचन इस प्रकार है:
पुण्यवाद-मात्र पुण्य है पाप नहीं?
कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जीव के सुख-दुःख का हेतु मात्र पुण्य ही है, पाप नहीं, इस सम्बन्ध में उनका तर्क है कि - जैसे जैसे क्रमशः पुण्य का उत्कर्ष होता है, अर्थात् यथाक्रम से जीव के पुण्य में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, तदनुरूप क्रमशः सुख की वृद्धि होती जाती है - "उत्कर्षता ह्यपचयेन च पुण्यमेव" तथा अन्त में पुण्य का परम उत्कर्ष होने पर स्वर्ग का उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है। यदि पुण्य की क्रमशः हानि होती है तो उतने ही प्रमाण में सुख की क्रमशः हानि होती है और दुःख की वृद्धि होती जाती है, जब पुण्य न्यूनतम रह जाता है तब नरक में निकृष्ट दुःख मिलता है। पुण्य का भी सर्वथा क्षय होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार केवल पुण्य मानने से सुख और दुःख दोनों घटित हो सकते है, अतः पृथक से पाप को मानने की आवश्यकता नहीं है।
___ पुण्यवादी इस तथ्य की पुष्टि के लिए उदारण देते हैं : जैसे पथ्याहार की क्रमिक वृद्धि से आरोग्यवृद्धि होती है, उसी प्रकार पुण्य की वृद्धि होने से सुखवृद्धि होती है, और पथ्याहार कम होने पर आरोग्य की हानि होती है, रोग की वृद्धि होती है। वैसे ही पुण्य न्यून होने पर दुःख बढता है। यदि पथ्याहार का सर्वथा त्याग कर दिया जाये तब मरण
मण्णसि पुण्णं - पावं, साहारणमहव दो वि भिन्नाइं। होज्ज न वा कम्मंचिय, समभावओं भवपंवचोऽयं" - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1908 महावीर देशना, 3/205
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