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________________ प्रश्न होता है कि क्या पुण्य और पाप का स्वतंत्र भिन्न-भिन्न अस्तित्व है अथवा वे एक ही हैं? जैन परम्परा में सर्वप्रथम वाचक तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति ने पुण्य और पाप दोनों को आश्रव के अन्तर्गत वर्गीकृत करके जो विरूद्धधर्मी थे उन्हें सजातीय बना दिया।' बहुत से लोग कहते हैं पुण्य-पाप जैसा कुछ नहीं है, यह जगत स्वाभाविक रूप से विचित्र है। पर श्रुति और धर्मशास्त्रों में पुण्य-पाप का स्पष्ट प्रतिपादन है। धर्मशास्त्र एक स्वर से पुण्य के उपार्जन और पाप के त्याग करने का उपदेश देते हैं। प्रत्यक्षतः दृष्टिगत है कि भलाई का फल भला और बुराई का बुरा होता है। आम का बीज बोने पर आम और नीम का बीज बोने पर नीम उत्पन्न होता है। आम बोने से नीम और नीम बोने से आम नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जगत में जो विचित्रता देखी जाती है, अथवा शुभ और अशुभ होता है उसके पीछे भी एक निश्चित नियम है, जिसे आध्यात्मिक क्षेत्र में पुण्य-पाप कहते हैं। अनुभूति से भी स्पष्ट है कि अच्छा काम करने पर मन में सुख सन्तोष और आनन्द की प्रतीति होती है, जबकि बुरा काम करने पर मन में असन्तोष या दुःख होता है, ये दोनों प्रकार के अनुभव ही पुण्य पाप की प्रतीति कराते हैं। ___किन्तु अचलभ्राता जी के मन में “पुरुषएवेदग्नि सर्वम्" जैसे वेदवाक्यों से (जिनमें पुरूष को सर्वोपरि माना है) तथा दूसरी ओर पुण्य-पाप को माना जाता है, इस कारण यह शंका उत्पन्न हुई कि - 1. पुण्य पाप का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं? 2. पुण्य - पाप दोनों एक है? 3. या जगत की विचित्रता स्वभावगत है। तब भगवान महावीर द्वारा अचलभ्राता जी की इन शंकाओं का समाधान किया गया। उसका विस्तृत वर्णन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य के अन्तर्गत 'गणधरवाद' में किया है। विशेषावश्यकभाष्य में पुण्य-पाप की अवधारणा गणधर अचलभ्रता जी की शंका अचलभ्राताजी के मन में पुण्य-पाप के सम्बन्ध में कई मत उपस्थित थे जैसे कि1. केवल पुण्य ही है, पाप नहीं है, क्योंकि पुण्य के उत्कर्ष अपकर्ष से सुख व दुःख को प्राप्ति होती है। । स आश्रवः - शुभः पुण्यस्य। अशुभः पापस्य - तत्त्वार्थसूत्र, 6/2-3 2 पुरुषएवेदंग्नि सर्व यद्यच्च भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति, ऋग्वेद 10/912 आदि चारों वेदों में। 349 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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