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अष्टम अध्याय पुण्य और पाप की समस्या और उसका समाधान
पुण्य और पाप
भारतवर्ष में अनेक दर्शन एवं धर्म है। प्रत्येक दर्शन एवं धर्म की तात्विक मान्यताएं अन्य दर्शनों एवं धर्मों की मान्यताओं से भिन्न है। यही बात धर्म-अधर्म, एवं पुण्य -पाप पर भी घटित होती है। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने धर्म - अधर्म एवं पुण्य - पाप को माना है। सभी ने हिसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और दुराचार, अनाचार आदि को पाप व अधर्म माना है तथा इससे विपरीत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, सदाचार तथा शील को पुण्य माना है।
जैन दर्शन के अनुसार सांसारिक जीव जब तक अयोगी अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक कर्म पुण्य या पाप के रूप में आते जाते रहते हैं। सयोगी केवली अवस्था तक कर्मों का आवागमन जारी रहता है। जब तक जीव के साथ शरीर लगा हुआ है, तब तक शरीर क्रिया-प्रतिक्रिया करता रहता है। शरीर से प्रवृति करते समय मन जब शुभ भावों में संलग्न होगा तब पुण्याश्रव (शुभ कर्मों के आगमन) को आमंत्रित कर लेगा और जब अशुभ भावों से युक्त होगा तब पापाश्रव निमंत्रण को देगा।
बौद्ध तथा वैदिक दर्शन भी पुण्य-पाप को स्वीकार करते है - जैसे कि बौद्ध दर्शन में तीन प्रकार के कर्म माने गये है - 1. अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म 2. कुशल या शुक्ल कर्म 3. अकुशल या कृष्ण कर्म। गीता में भी तीन प्रकार के कर्म निरूपित है - 1. अकर्म, 2. कर्म, 3. विकर्म।
जैन दर्शन का ईर्यापथिक कर्म बौद्धदर्शन के अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म, तथा गीता के अकर्म के समान है। इसी प्रकार जैनदर्शन का पुण्यकर्म, बौद्धदर्शन के कुशल कर्म तथा गीता के सकाम कर्म के समान है। जैन दर्शन का पाप कर्म बौद्ध दर्शन के अकशल कर्म तथा गीता के विकर्म के समान है।'
1 डा. सागरमल जी जैन, जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, पृ. 331
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