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प्रश्नोत्तर के माध्यम से 'तज्जीव-तच्छरीरवाद' का खण्डन कर के 'जीव और शरीर' की भिन्नता का समर्थन किया गया, इसी दृष्टि से यह दार्शनिक आगम है।
__ इस आगम के पूर्वार्द्ध में महाप्रभु महावीर के दर्शनार्थ प्रथम देवलोक का सूर्याभ देव ऋद्धि सहित उपस्थित होता है तथा उत्तरार्द्ध में राजा प्रदेशी और केशी श्रमण इन दोनों के मध्य में आत्मा के अस्तित्व और नास्तित्व जैसे प्रश्न पर प्रश्नोत्तर शैली में गंभीर विचारणा होती है, और अन्ततः राजा प्रदेशी आस्तिक से नास्तिक बन जाता है, श्रावक धर्म को भी आत्मसात कर लेता है, इतना ही नहीं रानी सूर्यकान्ता अपने पतिदेव राजा से संतुष्ठ की स्थिति नहीं रही, परिणामस्वरूप उसने राजा को विषपान करा ही दिया, ऐसी स्थिति में राजा शरीर के प्रति ममता का परिहार कर लेता है, और समता को अंगीकृत कर लेता है। जीवाजीवाभिगमसूत्र
जीव एवं अजीव का वर्णन करने के कारण इस सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है। अन्तिम तीर्थंकर प्रभु महावीर एवं इन्द्रभूति गौतम के बीच प्रश्नोत्तर के रूप में जीव-अजीव के भेद-प्रभेदों पर विशद चर्चा हुई। उस चर्चा को आचार्य ने सूत्रबद्ध किया है।
जैन दर्शन में नव तत्त्व मान्य है - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। इनमें से दो तत्त्व मुख्य हैं - जीव और अजीव। शेष सात तत्त्व इन दोनों तत्त्वों के संयोगी और वियोगी रूप हैं। जैन चिन्तनधरा का आरम्भ आत्मतत्त्व से होता है और अन्त मोक्ष में हो जाता है।
प्रस्तुत आगम में नो प्रतिपत्तियाँ हैं – प्रतिपति का अर्थ है प्रतिपादन। संसारवर्ती जीवों के प्रकार के सम्बन्ध में नौ प्रतिपतियाँ बताई गई हैं। मूलतः यह उल्लिखित है कि जीव राग-द्वेष, मोह-क्षोभ प्रभृति वैभाविक परिणतियों में जब परिणत हो जाता है तब वह चतुर्विध गतिरूप सांसारिक अवस्थाओं का अनुभव करता है, जन्म-जन्य और मृत्युजन्य
दुःख-क्लेश की अनुभूति भी कर लेता है, इन्हीं तथ्यों पर इस आगम के 9 प्रतिपत्तियों में .. विशद वर्णन है।
' जिनवाणी (जैनागम विशेषांक), श्री प्रकाश सालेचा, वही, पृ. 261
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