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विशिष्ट रूप से स्थिति बन्ध में कषाय ही कारण है, अतः कारण का अभाव में मुक्तात्मा में कर्मरूपी कार्य संभव नहीं है ।
(च) मण्डिक पुत्र की अगली समस्या यह थी कि जीव का गमनागमन कर्म के निमित्त से ही सम्भव होता है, मुक्तात्मा में कर्म का अभाव होता है, अतः वह लोकाग्र तक कैसे पहुंचती है? इसका उत्तर यह है कि आत्मा स्वभावतः ऊर्ध्वगामी है, अतः वह ऊर्ध्व की ओर गति करके लोकाग्र तक पहुंच जाता है, दूसरा यह है कि जैसे बन्दूक से निकली गोली पूर्व दबाव के कारण दूर तक जाती है। कर्मजन्य शरीर के त्याग से उत्पन्न शक्ति आत्मा को लोकाग्र तक पहुंचा देती /
मण्डिक पुत्र की अगली शंका थी कि आत्मा अरूपी होते हुए भी सक्रिय कैसे ? जबकि आकाशादि अरूपी द्रव्य निष्क्रिय हैं। श्रमण भगवान महावीर ने इसका समाधान देते हुए कहा 'आकाशादि पदार्थ अचेतन हैं किन्तु आत्मा अरूपी होते हुए भी चैतन्य है, तथा सक्रियत्व उसका विशेष स्वभाव है।
प्रभासजी की शंका थी कि निर्वाण है या नहीं? निर्वाण जीव की कर्मरहित अमुर्त स्वभावरूप अव्याबाध परिणामान्तर प्राप्त अवस्था है, अतः इसका अस्तित्व है। प्रभासजी की दूसरी शंका थी कि मोक्ष को जीव की अनन्त सुखमय अवस्था मानी जाती है, जब निवृत्त अवस्था में जीव को शब्दादि विषयों का उपभोग नहीं है तो मुक्तात्मा को सुख कहाँ से प्राप्त होगा? श्रमण भगवान महावीर द्वारा इसका समाधान दिया गया मुक्त जीव को मिथ्याभिमान से रहित स्वाभाविक प्रकृष्ट सुख होता है, वहाँ जन्म, जरा, व्याधि, मरण, क्षुधा, पिपासा, काम, क्रोध मद आदि समस्त बाधाओं का अभाव होने से आत्मा या जीव अनन्त सुख का अनुभव करता है। वस्तुतः मुक्ति का सुख विकारों के उपशमन से होने वाला आत्मिक सुख है। जैसे किसी व्यक्ति को 105° ज्वर हो किन्तु जब वह ज्वर उतर जाता है तब उसे सुख की अनुभूति होती है। यह सुख बाह्य उपलब्ध नहीं है किन्तु रोग के उपशान्त होने से है, वैसे ही मुक्ति का सुख बाह्य उपलब्ध नहीं है किन्तु यह विभावदशा की समाप्ति और स्वभावदशा की उपलब्धि रूप है ।
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. प्रभासजी की अगली शंका थी कि सुख और दुःख के कारण पुण्य और पाप है, मुक्त जीव के पुण्य-पाप के क्षय हो जाने से दोनों नहीं हो सकते, किन्तु भगवान महावीर की दृष्टि में मोक्ष का सुख है वह कर्मजन्य नहीं है। कर्मजन्य सुख और दुख बाह्य
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