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________________ पीस दिया जाना) नाश हो जाये तो उस बीज का अंकुर विशेष की संतति का भी अन्त हो जाता है। इसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी यदि कर्म का अपने कार्य करने से पूर्व नाश हो जाये तो अनादि बंध का भी अन्त हो जाता है। इस सम्बन्ध में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि भव्यत्व और अभव्यत्व के संदर्भ में जीव और कर्म का संयोग क्रमशः अनादि सान्त और अनादि अनन्त होता है। इसी संदर्भ में भगवान महावीर ने आर्य मण्डिक जी के निम्न संशयजन्य तर्कों का भी समाधान किया - (अ) मण्डिक जी की इस शंका का कि सभी जीवों में समान होने पर भी भव्य-अभव्य का भेद क्यों है, श्रमण भगवान महावीर ने यह समाधान दिया कि 'यह भेद स्वभावगत है।'. इस शंका का कि - भव्य जीवों का कर्म सम्बन्ध शान्त होते हुए भी सभी भव्य जीव मुक्त क्यों नहीं हो जाते? भगवान महावीर ने समाधान दिया - भव्यत्व का अर्थ जीव की मोक्ष प्राप्ति की योग्यता से है किन्तु उसका मुक्त होना उसके कर्म-निर्जरा में किये गये प्रयास पर निर्भर होने से जब तक इसका पूर्ण प्रयास से सम्पूर्ण निर्जरा नहीं हो जाती तब तक उसकी मुक्ति नहीं होती। मण्डिक जी की तीसरी शंका मोक्ष के कृतक होने से नित्यत्व के बारे में थी। इस पर श्रमण भगवान महावीर ने कहा (1) मोक्ष एकान्त रूप से कृतक नहीं है, क्योंकि यह जीव की वह विशिष्ट स्थिति है जो आत्मा से कर्मों के सर्वथा पृथक् हो जाने पर प्राप्त होती है। वस्तु रचना की अपेक्षा से मोक्ष कृतक नहीं है। (2) यह दशा प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की जाती है, अतः प्रयत्न की अपेक्षा से कृतक माना जा सकती है। अतः गोक्ष एकान्त रूप से कृतक नहीं होने से अनित्य नहीं हो सकता।। मण्डिक जी की अगली शंका थी कि एक बार मुक्त हो जाने से जीव का पुनः कर्मबन्ध क्यों नहीं होता? भगवान महावीर ने इसका समाधान इस प्रकार दिया कि मुक्त जीव अशरीरी होने से उसमें योग प्रवृति सम्भव नहीं है, योगप्रवृति के अभाव में कर्माश्रव सम्भव नहीं है। आश्रव के अभाव में बन्ध सम्भव नहीं है। दूसरा यह है कि कषायों के पूर्ण अभाव में ही मुक्ति संभव होती है। कर्मबन्ध करने में और 345 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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