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निमित्तों के कारण होते हैं। मुक्तात्मा बाह्यनिमित्तों से अप्रभावित रहता है, अतः दुःख का संवेदन उसके लिए संभव नहीं है । मुक्ति के सुख को दुख का अभावरूप ही मानना चाहिए वह आत्म उपलब्धि रूप सुख है, पदार्थजन्य सुख नहीं ।
प्रभासजी पुनः शंका करते हैं कि मुक्तात्मा का सुख कृतक है और कृतक होने से वह अनित्य होगा। महावीर ने इसके समाधान में कहा कि मुक्तात्मा का सुख स्वभावजन्य है, जिससे वह कृतक नहीं है तथा कृतक नहीं होने से अनित्य भी नहीं है । अतः मुक्तात्मा आत्मगत शाश्वत सुख का अनुभव करता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्तुत शंका - समाधान के माध्यम से विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि ने जैनदर्शन की अवधारणाओं के सम्बन्ध में जो-जो भी तर्क उपस्थित किये जा सकते थे, उन सब की संभावनाओं का विचार कर आत्मा, पुनर्जन्म बन्धन - मुक्ति आदि के स्वरूप को सम्यक्रूप से उपस्थित करने का प्रयत्न किया है।
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