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मूर्तिमन्त रूप होता है। सभी प्रकार के व्रतों, धर्मों और तपस्याओं में उसने पूर्णत्व प्राप्त कर लिया है। ऐसी अवस्था मुक्तावस्था कहलाती है।
___ आ. उमास्वाति के अनुसार ऐसा साधक जिसके चार प्रकार के घाति कर्मों का नाश हो जाता है, केवलज्ञान या सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है, ऐसे साधक को सयोगी केवली कहते हैं तथा जिसके शेष चार अघाति कर्म नष्ट हो चुके है उसे अयोगी केवली या मुक्त कहते हैं।' विशेषावश्यकभाष्य में भी दो प्रकार के केवली बताये हैं - सदेही और विदेही।
इस प्रकार जैनदर्शन में मोक्ष (निर्वाण) के सम्बन्ध में गहराई व विविध दृष्टियों से ऊहापोह किया गया है, मनन किया गया है। आगमों में भी मोक्ष का वर्णन विस्तृत रुप में मिलता है।
सूत्रकृतांगसूत्र में निर्वाण को सर्वश्रेष्ठ धर्म बताया है। यह भी बताया है कि - मोक्ष आत्मस्वातंत्र्य रुप सर्वोत्तम वस्तु है, जैसे तारों में चन्द्रमा सर्वोत्तम है।'
आत्म समाहित होना ही आत्मस्वातंत्र्य की प्राप्ति है (मोक्ष की प्राप्ति है) आत्म समाहित या आत्मानुभाव की ऐसी ऊँचाई पर जीव अवस्थित होता है जहाँ वह सुख-दुःख आदि द्वन्दों से प्रभावित नहीं होता। यही वास्तविक स्वतंत्रता है, यह अर्हत् अवस्था है।
परमात्म अवस्था ही निर्वाण अवस्था है। मोक्ष आत्मा की विशुद्धि का वह स्थान है, जहाँ आत्मा सर्वथा अमल एवं धवल होती है।
जैन दर्शन में मोक्ष मंजिल तक पहुंचने के लिए तीन साधन बताये हैं - 1. सम्यग्दर्शन, 2. सम्यक्ज्ञान और 3. सम्यकचारित्र। इन तीनों को समन्वित होने पर मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
'भारतीय दार्शनिक निबन्ध, पृ. 154-155
सूत्रकृतांगसूत्र
सूत्रकृतांगसूत्र, 1/11, 22 * आचारांगसूत्र, 1/2/1 5 प्रवचनसार, 3/41 नियमसार, 17/8
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