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जैन दर्शन के अनुसार जीव के बन्धन से उसके मोक्ष या कैवल्य तक की यात्रा के विभिन्न सोपान इस प्रकार है - आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । कर्म-कण जीव की ओर प्रवाहित होते हैं, इस को आस्रव कहते हैं। आस्रव दो प्रकार के हैं - भावानव और द्रव्याम्रव। जीव का किसी कार्य को करने का संकल्प करना 'भावानव', और संकल्प के परिणामस्वरूप तत्काल ही कर्मकणों का जीव में प्रवेश कर उसके वास्तविक स्वरूप पर आवरण डाल देना 'द्रव्यासव' कहलाता है। आस्रव जीव के बन्धन का कारण है। वह मानसिक स्थिति जो कर्मों के प्रवेश का कारण है, वह 'भावबन्ध' कहलाती है, यह भावानव का परिणाम है, इस स्थिति में जीव अपने ही राग-द्वेषों से बँधता जाता है। कर्मों द्वारा जीव के वास्तविक बन्धन को 'द्रव्यबन्ध' कहते हैं।
साधक के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि जो कर्म आत्मा में प्रवेश कर रहे हैं उन्हे रोक दिया जाय। कर्मों के आत्मा में प्रवेश को रोक देने की प्रक्रिया को संवर कहते हैं। मोक्ष के लिए आत्म प्रदेशों पर कर्मों का प्रवेश का रूकना ही पर्याप्त नहीं है। जिन्होंने पहले से ही जीव के स्वरूप को आवरित कर रखा है, ऐसे कर्मों का नाश किये बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। पहले से सम्बद्ध कर्मों को जीव से छुडाना ही 'निर्जरा' कहलाती
निर्जरा दो प्रकार की है - अविपाक और सविपाक। कर्मों को अपना फल देने के पूर्व ही तप इत्यादि साधनों द्वारा जीव से कर्मों का बाहर निकालना 'अविपाक निर्जरा' कहलाती है। इसके विपरीत अपना फल देकर जब कर्म आत्मा से अलग हो जाते हैं तो ऐसी निर्जरा 'सविपाक निर्जरा' कहलाती है। निर्जरा मोक्ष की ओर ले जाती है। जब किसी जीव में नये कर्मों का आस्रव रुक जाता है और पुराने कर्मों की निर्जरा पूर्ण रूप से हो जाती है तो जीव मुक्त हो जाता है और तत्क्षण तीन घटनाएं एक साथ घटित होती है। जीव का शरीर से विच्छेद हो जाना, विच्छेदित होकर ऊर्ध्वगमन करना, और लोकाकाश के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाना, जिसे जैनदर्शन में सिद्धशिला कहा जाता
है।
मोक्ष की अवस्था में आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् अनन्त चतुष्टय का साक्षात्कार कर लेता है। वह त्रिरत्न सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का
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