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हो जाती है, तर्क तथा बुद्धि उसे ग्रहण करने में असमर्थ है। किसी उपमा के द्वारा समझाया नहीं जा सकता। वह अनुपम है, अरूपी है, सत्तावान है । '
अमरकोश में, मुक्ति, कैवल्य, निर्वाण, श्रेय,
मोक्ष के कई पर्यायवाची शब्द हैं
निःश्रेय, अपवर्ग, मोक्ष आदि रुप मिलते हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र में विभिन्न स्थानों पर मोक्ष के नाम मिलते हैं निर्वाण, बहिर्विहार, सिद्धलोक, आत्मवसति, अनुत्तरगति, प्रधानगति, सुगति, वरगति, ऊर्ध्वदिशा, अनुपरावृत्त, शाश्वत, अव्याबाध, लोकोत्तम आदि समानार्थक शब्दों का उल्लेख किया गया है ।
जैन दार्शनिकों ने मोक्ष के दो भेद किये है- द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष ।
जब आत्मा चार प्रकार के घातिकर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय) से मुक्त हो जाती है तो आत्मा भावमोक्ष को प्राप्त कर लेती है, और जब वह सभी प्रकार के अघाति कर्मों (वेदनीय, आयुष, नाम, गोत्र) से भी मुक्त हो जाती है, तो वह द्रव्य मोक्ष (वस्तुनिष्ठ मोक्ष) को प्राप्त कर लेती है ।
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आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार "ऐसी मानसिक स्थिति जो जीव को सभी प्रकार के कर्मों से मुक्त करती है, या जीव के सभी कर्मों का नाश करती है, भावमोक्ष है, तथा सभी प्रकार के कर्मों का वास्तविक नाश या उनका जीव से छूट जाना द्रव्यमोक्ष है ।
जैन दर्शन के अनुसार कर्म केवल मानसिक और शरीरिक क्रियाएं नहीं है, वे वस्तुगत सत्ताएं है । कर्म अणुरूप द्रव्य है । जीव की प्रत्येक मानसिक एवं शारीरिक प्रक्रिया के साथ कुछ क्रियाओं से परिवर्तन होते हैं, रस परिवर्तन के दो पहलू है
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आत्मनिष्ठ
और वस्तुनिष्ठ ।
आत्मनिष्ठ परिवर्तन जैन दर्शन की शब्दावली में "भाव" कहलाता है। आत्मनिष्ठ परिवर्तन के समानान्तर ही कर्म जगत में भी परिवर्तन होता है और भाव के अनुरूप कर्म - कण जीव में प्रवेश कर जाते हैं, और वे एकरूप होकर उसके वास्तविक स्वरूप को ढंकने लगते हैं, इस घटना को 'द्रव्य' कहते हैं ।
आचारांगसूत्र, 1/5/6/172 उत्तराध्ययनसूत्र, उद्धृत - जैनदर्शन में जीव, 340
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