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भगवान ने समाधान दिया कि - इन्द्रियादि करण (साधन) मूर्त होने के कारण घटादि के समान ज्ञान क्रिया का कर्ता नहीं बन सकते। वे केवल ज्ञान क्रिया के द्वार है - साधन है, उपलब्धि का कर्ता तो जीव ही है। ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है। जैसे परमाणु कभी भी रूपादि से रहित नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी ज्ञान रहित हो सकती।'
मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभावात्मक रूप में मानने वाले जडवादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। अभावात्मक दृष्टिकोण
जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप में भी हुआ है। जैसे कि आचारांगसूत्र में किया गया है। आचारांगसूत्र में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण इस प्रकार हुआ है - मोक्षावस्था में समस्त कर्मों के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्मजन्य उपाधियों का अभाव होता है, अतः मुक्तात्मा न दीर्घ है, न हृस्व है, न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है। वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाला नहीं है। वह गन्ध-रस-स्पर्शादि से युक्त नहीं है। अवेदी है। - आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - मोक्षदशा में न सुख है, नु दुःख है, न वेद है, न बाधा है, न जन्म-मरण है, न वहां इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न निद्रा है, न वहाँ चिन्ता है, वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (शुद्ध) विचारों का भी अभाव है। मोक्षावस्था तो सर्वसंकल्पों का अभाव है। वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है, वह पक्षातिक्रान्त है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है। अनिर्वचनीय दृष्टिकोण
मोक्ष का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप से अनिर्वचनीयता की ओर ले जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से मुक्तात्मा का स्वरुप अनिर्वचनीय है।
आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा है - ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृति का वह विषय नहीं है। वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहां वाणी मूक
' विशेषावश्यकभाष्य, गाथा, 1995
आचारांगसूत्र, 1/5/6/171 नियमसार, 178-179
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