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तत्वार्थसूत्र के अनुसार निर्वाण समस्त कार्मिक पुद्गलों से मुक्तावस्था है, जहां आश्रव और बन्ध के समस्त कारण निर्जीर्ण हो जाते हैं "बन्धहेत्वाभावः निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म क्षयो मोक्षः । " 1
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जैनागमों में मोक्ष या निर्वाण पर तीन दृष्टियों से विचार हुआ है 1. भावात्मक दृष्टिकोण 2. अभावात्मक दृष्टिकोण 3. अनिर्वचनीय दृष्टिकोण |
1.
भावात्मक दृष्टिकोण : जैन दार्शनिकों ने मोक्ष अवस्था को निर्बाध अवस्था कहा है। मोक्ष अवस्था में समस्त बन्धनों के अभाव के कारण आत्मा के निज गुण पूर्णरूप से प्रकट हो जाते हैं। मोक्ष बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और आत्मशक्तियों का पूर्ण प्रकटीकरण है। मोक्ष प्राप्त होने पर आत्मा में निहित ज्ञान, भाव और अव्यक्त शक्तियाँ व्यक्त हो जाती है ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक अवस्था का चित्रण इस प्रकार किया है"शुद्ध, अनन्त - चतुष्टय युक्त, शाश्वत, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, अविचल और अनालम्ब है ।"2 मोक्ष में विद्यमान तत्त्व हैं 1. पूर्णसौख्य 2. पूर्णज्ञान 3. पूर्णदर्शन 4. पूर्णवीर्य 5. अमूर्तत्व 6. अलघु - अगुरुत्व 7. अस्तित्व और 8 सप्रदेशता ।
दशाश्रुतस्कन्ध में भी यही बताया है कि जिस प्रकार दग्ध बीज पुनः अंकुरित नहीं होते है, उसी प्रकार जब कर्म रूपी बीज पूर्णतः दग्ध हो जाते हैं तो मुक्तात्मा संसार
में
पुनः नहीं आते। वहाँ पूर्ण सुख 13
तत्त्वार्थसूत्र, 10/3
2 नियमसार, 176/177
दशाश्रुतस्कंध, 5/15
पुरुषार्थसिध्युपायः, 223/224
' विशेषावश्यकभाष्य, 1999
पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अनुसार मुक्त जीव हमेशा पंक रहित अपने स्वरूप में लीन निराबाध आकाश के समान स्वच्छ, परमात्मा, सर्वोच्च अवस्था में स्व पर प्रकाशक होता
है ।
विशेष्यावश्यकभाष्य के गणधरवाद में यह बात स्पष्ट रूप से बतायी गई है कि देह का नाश होने पर आत्मा के सभी आवरण दूर हो जाते हैं, अतः वह शुद्धतम होकर स्वच्छ आकाश में विद्यमान सूर्य के समान अपने सम्पूर्ण ज्ञान स्वरूप में प्रकाशित होती है । '
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