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होता), भक्त (जिसने अपने आपको ईश्वर को समर्पित कर दिया हे और स्वयं को ईश्वर का केवल निमित्त समझता है), ज्ञानी (जिसने ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर लिया है), कर्मयोगी (जिसने निष्काम भाव से कर्म करने के आदर्श को प्राप्त कर लिया है) इत्यादि कई नामों से पुकारते हैं।' गीता में दो प्रकार की मुक्ति मानी गयी है - जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति।
जैनदर्शन में मोक्ष का स्वरूप
जैन तत्वमीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध तथा निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है, वह मोक्ष है। कर्ममलों के अभाव में कर्मबन्धन भी नहीं रहता, और बन्धन के अभाव में ही मुक्ति है। मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है।
जो आत्मा अभी संसारावस्था में बन्धनयुक्त है, उस आत्मा का संसारबन्धन से मुक्त होकर अपनी विशुद्ध स्थिति में पहुंच जाना ही मोक्ष है। मोक्ष आत्मा की उस विशुद्ध स्थिति की अवस्था है, जहां आत्मा सर्वथा निर्मल एवं धवल हो जाता है। मोक्ष में आत्मा का विसर्जन नहीं होता है बल्कि जो मिथ्याज्ञान व मिथ्यादृष्टिकोण तथा मिथ्याचरण है, उनका विसर्जन होकर उनके स्थान पर क्रमश: सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यकचारित्र का पूर्णतया सर्वतोभावेन विकास हो जाता है।
तत्वज्ञान की दृष्टि से निर्वाण अथवा मोक्ष चेतन तत्व की विशुद्ध अवस्था है। वह आत्मा के द्वारा आत्मा की अनुभूति है, जिसमें आत्मा सभी प्रकार के कर्मों से मुक्त हो जाता है, वह सभी प्रकार के दुःखों से मुक्तावस्था है। जहाँ न जन्म है, न मरण है, न रोग है, न सम्बन्ध है, न पृथकता है न स्वीकृति है और न अस्वीकृति जैसे कोई तत्व ही हैं। वह समस्त अशुभों की परिसमाप्ति, लोभ से मुक्ति, क्रोध का वर्जन, और सभी प्रकार की अशक्तियों से मुक्ति है। वह समस्त सांसारिक प्रक्रियाओं का अन्त है, उसे सर्वोत्तम, शाश्वत, विशुद्ध व अविनश्वर, अवस्था कहा जाता है।
' भारतीय दर्शन में मोक्षचिन्तन, डा. अशोक कुमार, पृ. 26
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