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________________ गीता में मोक्ष का स्वरूप गीता में साधना का लक्ष्य है गीताकार इसे ही प्रकारान्तर में मोक्ष, उनकी दृष्टि से संसार पुनरागमन और जन्म-मरण की प्रक्रिया से युक्त है, जबकि मोक्ष परमतत्व, ब्रह्म, अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति । परमपद, निर्वाण, परमगति, परमधाम कहता है 1 पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता में कहा गया है "जिसको प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में नहीं लौटना होता है, वही परमधाम है, उसकी गवेषणा करनी चाहिए।"" तथा गीता का ईश्वर भी यही कहता है कि "जिसे प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में नहीं आना होता है, वही मेरा परमधाम है। परमसिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त कर दुःखों के घर, अस्थिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते । ब्रह्मलोक पर्यन्त समग्र जगत् पुनरावृत्ति से युक्त है, लेकिन जो भी मुझे प्राप्त कर लेता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता । "2 मोक्ष का निर्वचन स्वरूप का गीता में उल्लेख है कि "इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्व है जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना - पर्यायों में जो अव्यक्त है, उनसे भी परे उनका आधारभूत आत्मतत्व है ।" चेतना की अवस्थाएँ नश्वर हैं, लेकिन उनसे परे रहने वाला यह आत्मतत्व सनातन है, जो प्राणियों में चेतना पर्यायों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता । उसी आत्मा को अक्षर और अव्यक्त कहा गया है और उसे ही परमगति भी कहते हैं, वही परमधाम है, वही मेरा परमात्मस्वरूप या आत्मा का निजस्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने पर पुनः निर्वर्तन नहीं होता।"3 गीता, 8/15-14 गीता, 8/15-20 3 गीता, 8/20-21 - - भगवद्गीता में मुक्तपुरूष को कई नामों से अभिहित किया है उसे जीवनमुक्त ( इसी जीवन में, शरीर रहते हुए भी मुक्त), गुणातीत (जो सभी गुणों से ऊपर उठ चुका है) अर्थात् जिसने इस ज्ञान को प्राप्त कर लिया है कि वह साक्षी आत्मा या तटस्थ पुरुष है और सभी कर्म प्रकृति और उसके विकार मन, इन्द्रियों द्वारा किये जा रहे हैं। स्थितप्रज्ञ ( जिसका मन या चित्त स्थिर हो गया है, जो सुखों में चंचल या दुःखों में विचलित नहीं 2 Jain Education International 336 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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