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________________ धम्मपद में निर्वाण को परमसुख' सुत्तनिपात में प्रणीत एवं अमृतपदं कहा गया है, जिसे प्राप्त कर लेने पर नच्यूति का भय होता है, न शोक होता है, उसे शान्त, संसारोपशम एवं सुखपद भी कहा गया है। आचार्य बुद्धघोष ने निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमार्ग में लिखा है कि - निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। भव और जरामरण के अभाव से वह नित्य है, अशिथिल-पराक्रम-सिद्धि विशेषज्ञान से प्राप्त किये जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण विद्यमान हैं। ये अभावात्मक व्याख्या इस प्रकार है - लोहे के धन की चोट पडने पर जो चिनगारियाँ उठती है, वे तुरन्त ही बुझ जाती है, वे कहाँ गई, कुछ पता नहीं चलता, इसी प्रकार कामबन्धन से मुक्त हुए निर्वाण प्राप्त पुरूष की गति का कोई पता नहीं लगा सकता। निर्वाण को अभावात्मक इसलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होती है। बौद्ध परम्परा में भी दो प्रकार के निर्वाण माने गये हैं - प्रथम सोपादिशेष निर्वाण धातु अर्थात् जो इस शरीर में बार-बार लाने वाली तृष्णा के क्षय के बाद प्राप्त होती है तथा दूसरी अनुपादिशेष निर्वाण धातु अर्थात् जो शरीर के छूटने के बाद प्राप्त होती है। __ भगवान बुद्ध ने निर्वाण मार्ग के 8 चरण बताये हैं - 1. सम्यक् दृष्टि सम्यक् आजीव 2. सम्यक् संकल्प 6. सम्यक् व्यायाम 3. सम्यक् वाक् 7. सम्यक् स्मृति 4. सम्यक फर्म 8. सम्यक् समाधि इन आठ अवस्थाओं को प्राप्त करके साधक निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। 'धम्मपद, 203-204 सुत्तनिपात, 13/4 धम्मपद, 368 * विसुद्धिमग्ग, भाग 2, पृ. 119-121 उदान, 8/10 जै.बौ.गी. के आचार, दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डा. सागरमल जी, पृ. 416 335 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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