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विपाकसूत्र में पाप और पुण्य की गुरू-ग्रन्थियों को सरल उदाहरणों द्वारा उद्घाटित किया है तथा सुपात्रदा की महत्ता बताते हुये पार की विधियां बतायी हैं कि किस प्रकार दान देना चाहिए।
___इस आगम की अभिधा से स्पष्ट है कि प्रस्तुत आगम में विविध दृष्टियों का विवेचन है, एतदर्थ यथानाम तथातथ्य दृष्टिवाद है।
भोग-विलास, इन्द्रिय विषयों के सुख जीव के लिए मीठे जहर के समान है, अतः जीवन को धर्मसंस्कारों से या शुभाचरण से भावित किया जाए तो दुःख की घड़ियों का सामना नहीं करना पड़ता है तथा कर्मबन्ध से बचा जा सकता है, यही तथ्य विशेषरूप से इस आगम में बताया गया है।
दृष्टिवाद सूत्र
__ यह बारहवां अंग है। इसमें विभिन्न दर्शनों एवं नयों का निरूपण है।' जिसमें विविध दृष्टियों का विवेचन है, उसे दृष्टिवाद कहा जाता है। यह काल प्रवाह में विलुप्त हो चुका है। इस आगम की अभिधा से स्पष्ट है कि प्रस्तुत आगम में विविध दृष्टियों का विवेचन है, एतदर्थ यथानाम तथातथ्य 'दृष्टिवाद' है।
दृष्टिवाद को पंचविध विभाग में वर्गीकृत किया गया है यथा – परिकर्म, सूत्र, पूर्व, अनुयोग और चूलिका।
प्रथम परिकर्म के अन्तर्गत लिपिविज्ञान और गणित विधा का विवेचन था। द्वितीय सूत्रविभाग में नयो अर्थात् मतों की विवेचना की हुई थी। तृतीय पूर्व विभाग में 14 पूर्व समाहित थे, जिनका संक्षेप में उल्लेख इस रूप में है -
1.
3.
उत्पादपूर्व – द्रव्य और पर्यायों के उत्पाद की प्ररूपणा। अग्रायणीयपूर्व – द्रव्य-पर्याय और जीव विशेष के अग्रपरिमाण का वर्णन। वीर्यप्रवाद पूर्व - सकर्म तथा निष्कर्म जीव के वीर्य विशेष का वर्णन। अस्तिनास्ति
- प्रत्येक द्रव्य के स्वरूप से अस्तित्व और परस्वरूप से नास्तित्व का प्रतिपादन।
' स्थानांगवृत्ति, ठाण 14, उद्दे. 1 - प्रवचनसारोद्धार द्वार 144
नन्दीसूत्र, के किं तं हिठिवाए ?......
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