________________
मार्गों को पूर्णतः स्पष्टता के साथ उपस्थित किया है। मोक्षार्थी साधक के लिए यह ज्ञान आवश्यक है, अतः इस आगम की अपनी अलग विलक्षण विशेषता है।
विपाकदशा
इस आगम में सुकृत और दुष्कृत कर्मों के विपाक का वर्णन किया गया है, अतः इसका नाम विपाकदशा है। प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कंध हैं और प्रत्येक में दस-दस अध्ययन हैं।' विपाकदशाा यह वस्तुतः अन्वर्थ संज्ञा है। यह नामकरण अर्थ की अनुकूलता से रखा गया है। और इसी से वर्णित विषय की प्रतीति भी स्पष्टतः हो जाती है। यह वह सूत्र है जिसमें विपाक अर्थात् कर्मफल का वर्णन है। कर्मफल का वर्णन और विवरण भी उभय रूप से उपलब्ध होता है। प्रथम सिद्धान्त रूप से है और द्वितीय कथानकों के माध्यम से है। कर्मफल भी दो प्रकार से हैं, सुखरूप भी है और दुःखरूप भी है। यथार्थता यह है कि यह आगम एक ऐसा आदित्य है जो सर्वतोभावेन प्रकाशमान है। इस सूत्र के प्रत्येक अध्याय, प्रत्येक अध्याय के प्रत्येक पृष्ठ, प्रत्येक पृष्ठ की प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक पंक्ति के प्रत्येक शब्द, प्रत्येक शब्द के प्रत्येक अर्थ और उसके निगूढ़ आशय वस्तुवृत्या व्यापक से व्यापक, ससीम से असीम और लघीयान से महियान है। किं बहुना यह आगम अपने स्वरूप में उपमान है और प्रतिमान भी है।
कर्मसिद्धान्त जैनदर्शन का मुख्य सिद्धान्त है, इसी सिद्धान्त को उदाहरणों द्वारा प्रस्तुत आगम में सरलता से समझाया गया है, कि किस प्रकार सत्कार्य करने से सुख की तथा दुष्कर्म करने पर दुःख की प्राप्ति होती है। जो माँस भक्षण, वेश्यागमन करता है तथा दीन दुखियों को पीड़ित करता है अन्याय और अत्याचार करता है, उसे विभिन्न यातनाएं सहनी पड़ती हैं, और जो दान-सेवा या धर्मादि कार्य करते हैं उन्हें नाना प्रकार की ऋद्धियाँ-समृद्धियाँ मिलती हैं। मृगापुत्र, उज्झितक, देवदत्त आदि के कथानकों में पाप के परिणाम सुन कर जहां रोमांचित हो जाते हैं वहीं दूसरी ओर सुबाहुकुमार, भद्रनन्दी कुमार के वर्णन में जीवन पुण्य के प्रभाव से जो सुख-वैभव का दिग्दर्शन कराया।
। जिनवाणी (जैनागम विशेषांक), श्री जम्बूकुमार जैन, वही, पृ. 235
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 1, पं. वेचरदास दोशी, पृ 256
_17
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org