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की गई उससे उनका शरीर अस्थिपंजर सा हो गया। प्रस्तुत आगम में उनके प्रत्येक अंग को विविध उपमाओं से उपमित किया है। भगवान महावीर द्वारा उनको तपसाधना को प्रशंसित किया है और राजा श्रेणिक के द्वारा पृच्छा करने पर धन्यमुनि को 14 हजार मुनियों में सर्व श्रेष्ठ के रूप में महिमामंडित किया है।
सर्व साधकों ने अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह निष्ठापूर्वक किया। फलस्वरूप वे अपने ध्येय को प्राप्त करने में सफल हुए। इस आगम में उस समय की सामाजिक, राजनैतिक
और आर्थिक स्थितियों का वर्णन भी उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह आगम ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक दृष्टियों से अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
प्रश्नव्याकरण
यह आगम द्वादशांगी का दसम अंग है। प्रश्नव्याकरण का अर्थ है - प्रश्नों का व्याकरण अर्थात संकथन। प्राचीन प्रश्नव्याकरण में विद्याओं एवं मंत्रों का समावेश था, किन्तु भविष्य में इनका दुरुपयोग न हो इस आशंका से वे सब विद्याएं इस आगम में से बहिर्गत कर दी गई और उनके स्थान पर आश्रव और संवर के वर्णन विषय में प्रस्तुत किया गया।
इस आगम के दो श्रुतस्कन्ध हैं - आश्रवद्वार और संवरद्वार। प्रत्येक श्रुतस्कंध के पांच-पांच अध्ययन है। तन के रोग एक जन्म में ही पीड़ा देते हैं किन्तु मन के रोग अर्थात् आस्रव द्वार तो जन्म-जन्मान्तरों तक आत्मा को संतप्त करते हैं।
प्रथम खण्ड में यह बताया गया है कि हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच आस्रव द्वारों के निमित्त से जीव प्रति समय कर्म रूपी रज का संचय करके चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है। द्वितीय श्रुतस्कंध में आस्रव द्वारो के निरोध रूप में पांच संवर द्वार निरूपित हुए हैं। श्रमण धर्म - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप है, जब साधक मन, वचन, काया रूप त्रिगुप्ति से संयुक्त होकर श्रमण धर्म का आचरण करता है तब कर्मों का आस्रव, आगमन अवरूद्ध हो जाता है। जहाँ आश्रवतत्त्व जन्म-मरण रूपी भव-परम्परा की वृद्धि का मुख्य कारण है वहीं संवर तत्त्व शुद्ध आत्मदशा प्राप्ति का प्रमुख हेतु है। इस प्रस्तुत आगम में प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों
पण्होत्तिपुच्छा, पडिवयणं वागरणं प्रत्युत्तामित्यर्थः, आ. हरिभद्र, नन्दीवृत्ति
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