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सांख्य दो प्रकार की मुक्ति को मानता है 1. जीवन मुक्ति 2. विदेह मुक्ति । जब जीव को तत्वज्ञान का अनुभव होता है, अर्थात् पुरूष और प्रकृति के भेद का ज्ञान होता है, वह मुक्त हो जाता है। यद्यपि वह मुक्त हो जाता है, फिर भी पूर्वजन्म के कर्मों के प्रभाव से उसका शरीर विद्यमान रहता है। जिस प्रकार कुम्भकार के दण्ड को हटा लेने पर भी पूर्ववेग के कारण कुम्भकार का चक्र कुछ समय तक घूमता रहता है, उसी प्रकार पूर्वजन्म के कर्मों के कारण जिनका फल समाप्त नहीं हुआ है, मुक्ति के बाद भी शरीर कुछ समय तक कायम रहता है। इस प्रकार की मुक्ति को जीवनमुक्ति भी कहा जाता
जो मुक्ति मृत्यु के उपरान्त प्राप्त होती है वह विदेहमुक्ति कही जाती है। इस मुक्ति की प्राप्ति पूर्वजन्म के शेष कर्मों के फल का अन्त हो जाने पर होती है। इस मुक्ति में शरीर का अभाव रहता है। इसे जैन दर्शन में सयोगीकेवली व अयोगीकेवली के नाम से अभिहित किया है। जब तक योग है तब तक वे संसार में रहते हैं, योगों का निरुन्धन होते ही वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार 'पुरुष स्वभावतः मुक्त है, वह न बन्धन में पड़ता है, और न उसका पुनर्जन्म होता है, प्रकृति ही विभिन्न उपादानों से बन्धन में पडती है, पुनर्जन्म को प्राप्त करती है, और मोक्ष का लाभ करती है। जिस प्रकार नर्तकी दर्शकों का मनोरन्जन करके रंगमंच से चली जाती है, ठीक इसी प्रकार प्रकृति किसी विशेष पुरुष के मोक्ष प्राप्त कर लेने पर उसके सामने से हट जाती है।
योग दर्शन के अनुसार मनुष्य में मोक्ष प्राप्त करने की प्रवृति जन्मजात होती है। योग सांख्य की तत्वमीमांसा और उसके कैवल्य को स्वीकार करता है। परन्तु योगदर्शन में योगाभ्यास द्वारा जब बुद्धि शुद्ध हो जाती है तो वह प्रकृति में लय होने लगती है, जिसमें से उसका विकास हुआ था। पुरुष को भी भेद-विज्ञान हो जाता है और अज्ञान का स्वरूप समझ में आ जाता है अज्ञान से सम्बन्ध हटते ही पुरुष कैवल्य प्राप्त कर लेता है। जीव को जब विवेक की प्राप्ति होती है तब कैवल्य प्राप्त होता है।
'भारतीयदर्शन में मोक्षाचिन्तन, पृ. 66 ' सत्पुरुषयों शुद्धिसामे कैवल्यम्, योगसूत्र, 3/55
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