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सकता है और न शुद्ध चैतन्य का आनन्द और चेतना ये दोनों आत्मा के आकस्मिक गुण हैं, तथा मोक्ष अवस्था में आत्मा सभी आकस्मिक गुणों का परित्याग कर देता है । '
मोक्ष पाने के लिए न्याय दर्शन में श्रवण, मनन और निदिध्यासन पर जोर दिया गया है ।
सांख्य योग दर्शन में मोक्ष का स्वरूप
तो दूसरा
सांख्य और योग एक ही विचारधारा के दो पहलू है, एक सैद्धान्तिक व्यावहारिक है। सांख्य तत्त्व मीमांसा की समस्याओं पर चिन्तन करता है, जबकि योग कैवल्य को प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों पर बल देता है ।
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सांख्यदर्शन द्वैतवादी दर्शन है। वह पुरूष (चैतन्य) तथा प्रकृति ( जडतत्व) के द्वैत को प्रतिपादित करता है। पुरुष और प्रकृति ये दोनों एक-दूसरे से पूर्णरुप से भिन्न हैं । प्रकृति अर्थात् सत्त्व - रज और तम इन तीनों की साम्यावस्था । प्रकृति जब पुरुष के सान्निध्य में आती है तब उस साम्यावस्था में विकार उत्पन्न होते हैं, जिसे गुण-क्षोभ कहा जाता है। संसार के सभी जड़ पदार्थ प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं और प्रकृति स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होती, ठीक इससे विपरीत पुरुष न किसी पदार्थ को उत्पन्न करता है, और न स्वयं किसी से उत्पन्न । पुरुष अपरिणामी, अखण्ड चैतन्य मात्र है, बन्ध और मोक्ष ये दोनों वस्तुतः प्रकृति की अवस्था हैं। इन अवस्थाओं का पुरुष में आरोप किया जाता है। जैसे अनन्ताकाश में उड़ान भरता हुआ पक्षी का प्रतिबिम्ब निर्मल जल में गिरता है, पर वह मात्र प्रतिबिम्ब है, वैसे ही प्रकृति के बन्ध और मोक्ष पुरुष में प्रतिबिम्बित होते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार बन्धन का कारण अविद्या या अज्ञान है। पुरूष अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है, और स्वयं का प्राकृतिक तथ्यों से मिथ्या तादात्म्य स्थापित कर लेता है। यही पुरूष का अज्ञान है, और यही उसके बन्धन का कारण है। बन्धन के इन कारणों को जानकर जब पुरूष यह भेद ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
। तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः
गुणानामात्मनोध्वंसः, सोपवर्ग प्रतिष्ठिता ।। न्यायमंजरी, पृ. 508
2 अम्बा, अभिनन्द ग्रन्थ, लेख मोक्ष और मोक्षमार्ग, धर्मज्योति परिषद्, पृ. 261
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