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________________ बृहदारण्यक उपनिषद में यह उल्लेख है – मुक्त आत्मा सभी प्रकार के भयों से मुक्त होकर अभय हो जाती है, मुक्ति बन्धन का विनाश है और बन्धन अज्ञान की उपज है। मोक्ष को आनन्दमय अवस्था माना गया हैं मोक्ष की अवस्था में जीव का ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। ब्रह्म आनन्दमय है, इसलिए मोक्षावस्था को भी आनन्दमय माना गया है। इस प्रकार ऋषियों ने मोक्ष को विभिन्न रूपों में स्वीकार किया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष का स्वरूप न्याय और वैशेषिक दोनों वस्तुवादी दर्शन है। न्याय मुख्यतया ज्ञानमीमांसा और तर्कशास्त्र की समस्याओं पर विचार करता है, वैशेषिक मुख्य रूप से तात्विकप्रश्नों पर विचार करता है। परन्तु दोनों का लक्ष्य मोक्ष है। __ न्याय वैशेषिककार की दृष्टि से सभी प्रकार के दुःखों का हमेशा के लिए नाश हो जाना ही मोक्ष या अपवर्ग कहलाता है।' मोक्ष की स्थिति सुख एवं दुःख दोनों का अतीत है। यह ऐसी अवस्था है जिसमें सभी प्रकार के सुखात्मक एवं दुःखात्मक अनुभवों का विनाश है। आत्मा सभी प्रकार के अनुभवों एवं संसार में व्याप्त विभिन्नताओं, जो पिछले कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, उनसे मुक्त हो जाता है। यही मोक्ष है। मोक्ष में जाने का क्रम वे इस प्रकार बताते हैं कि - तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाश हो जाता है, मिथ्याज्ञान के दूर होने पर दोष दूर हो जाते हैं। दोषों के दूर होने पर कर्म जन्य प्रवृत्ति दूर हो जाती हैं, जब कर्म नही होते तो पुनर्जन्म भी नहीं होता, पुनर्जन्म के. रूक जाने से दुःख दूर हो जाते हैं, और दुःखों के दूर होने से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। मोक्ष में बुद्धि, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, संकल्प, पुण्य-पाप तथा पूर्व अनुभवों के संस्कार इन नौ गुणों का आत्यन्तिक उच्छेद होता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार - मोक्ष की अवस्था में आत्मा सभी प्रकार के अनुभवों को मात्र सत्ता में रखता है। वह उस अवस्था में न शुद्ध आनन्द का अनुभव कर ' (क) आत्यन्तिकी दुःख निवृत्ति मोक्षः (ख) चरम दुःख ध्वंसः - तर्क दीपिका। (क) तद्भावे संयोगाभावोऽप्रादुर्भावाश्च मोक्षः, वैशेषिकसूत्र, 5/2/18 (ख) आत्यन्तिको दुःखाभावः, न्यायवार्तिक 330 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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