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________________ किसी मूल्य को जीवन का परम शुभ स्वीकार करने को तैयार नहीं है। यहाँ कतिपय दर्शनों में मोक्ष के विषय में क्या मत हैं, इस पर ध्यान देंगे। उपनिषदों में मोक्ष का स्वरूप उपनिषद् परमतत्त्व से सम्बन्धित वह गुह्य विद्या है जो शिष्य अपने गुरु के चरणों में बैठकर प्राप्त करते थे। उपनिषद् के ऋषियों ने परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्वतन्त्र और निर्भीक प्रयत्न किये वे किसी नित्य वस्तु की खोज में थे जिसे प्राप्त करके फिर खोना न पड़े। क्योंकि धर्म का फल स्वर्ग भी नित्य नहीं है, पुण्यों का क्षय हो जाने पर स्वर्ग से भी लौटना पड़ता है। नित्य वस्तु दो हैं आत्मज्ञान तथा मोक्ष । 1 जिसने आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान या मोक्ष प्राप्त कर लिया है उसका फिर जन्म नहीं होता । जन्म ग्रहण करने का मूल कारण भवतृष्णा या सांसारिक भोगों को भोगने की अतृप्त इच्छा है। आत्मज्ञानी की सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। जिस प्रकार सागर से मिलने पर विभिन्न नदियाँ अपना नाम और रुप खो देती हैं, सागर के साथ एक होकर स्वयं सागर बन जाती हैं, उसी प्रकार मुक्त जीव ब्रह्म में अपने नाम और रूप खो देते हैं और ब्रह्म के साथ एक होकर स्वयं ब्रह्म बन जाते हैं । उपनिषदों में मोक्ष तत्त्व को स्वीकार किया है, उनके मतानुसार मोक्ष की अवस्था में जीव अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लेता है, तथा ब्रह्म के साथ तादात्म्यता हो जाती है। जीव का ब्रह्म से मिल जाना ही मोक्ष है । मुण्डक उपनिषद में बताया गया कि "जिसने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उसकी हृदय ग्रन्थि टूट जाती है, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं और उसके कर्मों का क्षय हो जाता है ।' आगे बताया है कि 1 2 "जो ब्रह्म को जान लेता है, वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है वह शोक से तर जाता है, पाप को पार कर लेता है और अमरत्व को प्राप्त कर लेता है।"2 जिसने आत्मज्ञान, या ब्रह्मज्ञान या मोक्ष प्राप्त कर लिया है, उसका फिर जन्म नहीं होता हैं । 3 -― मुण्डकोपनिषद, 2/28 मुण्डकोपनिषद, 3.2.9 बृहदारण्यक उपनिषद, 3/3/1 - Jain Education International 329 -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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