SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूर्त पदार्थों को भी नहीं जला सकती है, परन्तु वह वस्तु अग्नि की लपटों से अग्निमय दृष्टिगोचर होती है। वैसे ही आकाश अग्निमय प्रतीत होता है, किन्तु अग्नि शान्त होते ही आकाश फिर से निर्मल और स्वच्छ प्रतीत होता है। यही बात आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध में भी है। कर्म आत्मा के अस्तित्व को समाप्त करने में सर्वथा असमर्थ है। आत्मा कर्म के प्रभाव से इतना ही प्रभावित होता है कि जब तक कर्मों का प्रवाह प्रवहमान रहता है, तब तक वह कर्ममय दिखाई देती है। परन्तु कर्म का स्रोत सूखते ही आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है। यह प्रश्न हो सकता है कि यदि दो स्वतंत्र सत्ताओं - जडकर्म और चेतन आत्मा में पारस्परिक सम्बन्ध को स्वीकार किया जायेगा तो फिर मुक्तावस्था में भी जड कर्म परमाणु आत्मा को प्रभावित किये बिना नहीं रहेंगे, और मुक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा। यदि वे परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करने में सक्षम नहीं है तो फिर बन्धन ही कैसे सिद्ध होगा? आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि - जैसे स्वर्ण कीचड़ में रहने पर भी विकृति (जंग) नहीं लाता, जबकि लौह तत्त्व में विकार आ जाता है, इसी प्रकार शुद्धात्मा स्वर्ण समान है, वह कर्म परमाणुओं के मध्य रहते हुए भी उसके निमित्त से विकारी नहीं बनता, जबकि अशुद्ध आत्मा लौहवत् विकारी बन जाता है। यह निश्चित है कि आत्मा जब तक भौतिक शरीर से युक्त होती है, तब तक भौतिक कर्म-परमाणु उसे प्रभावित कर सकते हैं। जैसे ही कर्म-परमाणु से वियोग होता है उसी समय जीव को मुक्ति प्राप्त हो जाती है। मोक्ष का स्वरूप विभिन्न दर्शनों में बन्ध चर्चा में यह बताया गया है कि अनात्म में आत्माभिमान ही बन्ध कहलाता है। तो इससे यह स्पष्ट होता है कि अनात्म में आत्माभिमान का दूर होना ही मोक्ष है। इस विषय में सभी दार्शनिकों का एक मत है। अब यह विचार करना आवश्यक है कि मोक्ष अथवा मुक्त आत्मा का स्वरूप किस प्रकार का है? - भारतीय दर्शन में मूल्य के रूप में मोक्ष को सर्वोच्च स्थान दिया है। मोक्ष भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। मोक्ष जीवन मरण के चक्र से तथा सभी प्रकार के दुःखों से हमेशा के लिए मुक्ति पाना है। भारतीय दर्शन की यह विशेषता है कि वह मोक्ष से कम 328 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy