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कथंचित मूर्तिक है। ऐसा मानने पर संसारावस्था में जीव का शरीररूप मूर्तिक पदार्थ के साथ बन्ध हो जाना, सिद्धान्त विरूद्ध नही है।'
छह द्रव्यों में चार द्रव्य तो तटस्थ है, किन्तु जीव और कर्म पुद्गल ये दो द्रव्य बंध को प्राप्त होते हैं। ये दोनों द्रव्य भी तभी बन्ध को प्राप्त होते हैं, जब आत्मा और कर्म की परस्पर अनुकूलता हो, प्रतिकूल पदार्थों का सम्बन्ध नहीं होता। प्रवचनसार में कहा गया है कि – “यथायोग्य स्निग्ध रूक्षत्व रूप स्पर्श से पुद्गल कर्मवर्गणाओं का परस्पर पिण्डरूप बन्ध होता है। जीव के रागादि या कषायादि परिणामों का निमित्त पाकर जीव-पुद्गल का बन्ध होना जीव-पुद्गल (कर्म) बन्ध है। परमाणु में स्पर्श, रस गन्ध तथा रुप ये चार प्रधान गुण हैं, इनके अतिरिक्त उसमें स्निग्ध तथा रुक्ष रुप से परिणमन करने की शक्ति भी है। इसी के कारण पुद्गल और जीव एक-दूसरे से बन्ध को प्राप्त होते हैं। जैसे - सोने के साथ ताम्बा मिलकर एक डली बन जाती है। स्निग्ध का अर्थ आकर्षणयुक्त (Proton) और रुक्ष का अर्थ विकर्षणयुक्त जैसे (Electron) निकट सम्पर्क को प्राप्त होने पर ये भिन्न गुणधारी परस्पर में नीर-क्षीरवत् मिलकर एकाकार हो जाते हैं।
मूर्त पदार्थों का अमूर्त के साथ सम्बन्ध होता है, यह ठीक है, किन्तु अमूर्त पदार्थ पर मूर्त पदार्थों का असर कैसे होता है? जैसे वायु और अग्नि आकाश में स्थित है, फिर भी आकाश पर उनका कोई प्रभाव नहीं पडता तो फिर अमूर्त आत्मा को मूर्त कैसे प्रभावित कर सकता है?
इसका समाधान है कि अग्नि दो तरह से पदार्थ पर प्रभाव डालती है। एक तो यह कि जिस प्रदेश में आग रहे, वह अग्निमय दिखाई दे और दूसरा यह कि उस प्रदेश को जलाकर भस्म कर दे। यह निश्चित है कि अग्नि आकाश को जला नहीं सकती, परन्तु जिस स्थान में आग है वह आकाशप्रदेश अग्निमय दिखाई देता है। वह आग से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। यदि जलने का प्रश्न है तो वह अमूर्त पदार्थ ही नहीं, कई ऐसे मूर्त पदार्थ भी हैं जिन पर अग्नि का कोई असर नहीं होता, जैसे वस्तुओं को पानी के प्रभाव से बचाने के लिए “वाटर प्रूफ" वस्त्र का निर्माण किया गया, उसी तरह वैज्ञानिकों ने “फायर प्रूफ” वस्त्र का भी निर्माण कर लिया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अग्नि बहुत से
' जिनेन्द्र वर्णी, कर्म-सिद्धान्त, जिनेन्द्रवर्णी ग्रन्थमाला, पृ. 37 1 प्रवचनसार टीका, 2/85 1 जिनेन्द्र वर्णी - कर्म सिद्धान्त, पृ. 21
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