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दूसरा समाधान है कि अनादिकाल से जीव कर्मों से बंधा हुआ है, कर्मबद्ध आत्माएँ कथंचित मूर्त होती है, संसारी दशा में मूर्त रहती है। जो आत्मा पूर्णरूप से कर्म मुक्त हो जाता है, उसको कभी भी कर्म का बन्धन नहीं होता, जो आत्मा कर्मबद्ध है, उसी के कर्म बन्धते हैं।
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध नीर-क्षीरवत् अथवा अग्नि-लौहपिण्डवत् माना है। जैसे “ज्ञान” आत्मा का गुण होने के कारण अमूर्त है, परन्तु मदिरा सेवन कर लेने से आत्मा का ज्ञान गुण लुप्त हो जाता है, अमूर्त गुणों पर मूर्त मदिरा का प्रभाव जैसे स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही अमूर्त जीव से मूर्त कर्मों का संबन्ध भी संभव है।'
आत्मा को पूर्णरूप से अमूर्त नहीं मानकर कथंचित मूर्त मानना होगा, क्योंकि पुण्य पाप के बंधन से जीव अमूर्तिक होते हुये भी मूर्तिक हो जाता है। जैसे- पुण्य-पाप दोनों द्रव्यकर्म पौद्गलिक या मूर्तिक होते हैं। उनके परिणामस्वरूप प्राप्त सुख दुःख रूपी फलों को (जो मूर्तिकजन्य होने से रूपी होते है) भोगता हुआ अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक हो जाता है। जब जीव पुण्य पाप के बन्धन से छुट जाता है तब स्व-रूप में स्थित होकर अमूर्तिक हो जाता है। _ जिनेन्द्रवर्णी जी कर्मपुद्गल व जीव सम्बन्ध का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि- जीव द्रव्यको हम अमूर्तिक कहते हैं, पर वास्तव में वह आकाशवत सर्वथा अमूर्तिक नहीं है? जिस प्रकार घी नामक पदार्थ मूलतः दूध में रहता है, परन्तु एक बार घी बन जाने पर उसे पुनः दुग्ध रूप में परिणत करना सम्भव नहीं है। अथवा जिस प्रकार स्वर्ण मूलतः पाषाण के रूप में उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार स्वर्ण बन जाने पर उसे पुनः किट्टीका के साथ मिलाया जाना असम्भव है, इसी प्रकार जीव (आत्मा) पदार्थ मूलतः शरीर में उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों से सम्बन्ध छूट जाने पर पुनः उसका शरीर के साथ बंध जाना असंभव है। इस कारण यह माना जाता है कि घी तथा स्वर्ण की भाँति जीव मूलतः अमूर्तिक या शरीर रहित नहीं है, बल्कि शरीर के साथ द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव रूप से संश्लेष संबन्ध को प्राप्त होने के कारण वह अपने अमूर्तिक स्वभाव से च्युत हुआ उपलब्ध होता है। इसी प्रकार वह मूलतः अमूर्तिक न होकर
मुत्तेणामुत्तिमुत्तो, उवघाताणुग्गहा कधं होज्ज।। जध विण्णागादीणं, मदिरापाणोसधादीहिं।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 16 37
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