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मनोवृत्तियाँ भी आत्मा में स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती, जब तक कि वे कर्मवर्गणाओं के विपाक के रूप में चेतना के समक्ष उपस्थित नहीं होती । मनोविज्ञान में बताते हैं कि शरीर रसायन और रक्त रसायन में परिवर्तन संवेग (मनोभावों) के कारण होता है, संवेग में परिवर्तन रसायन परिवर्तन से होता है, दोनों परिवर्तन सापेक्ष है, वैसे ही कर्म करने के लिए आत्मतत्व और जडतत्व परस्पर सापेक्ष है। जड वर्गणाओं के कारण मनोभाव उत्पन्न होते हैं, और मनोभावों के कारण पुनः जड कर्म परमाणुओं का बन्ध होता है, जो अपनी विपाक अवस्था में पुनः मनोभावों ( कषायों) का कारण बनते हैं। इस प्रकार मनोभावों (आत्मिक प्रवृत्ति) और जड़ कर्म परमाणुओं की पारस्परिकता प्रभाविकता का क्रम चलता रहता है। जैसे वृक्ष और बीज में पारस्परिक सम्बन्ध है, इसी प्रकार आत्मा का अशुद्ध मनोवृतियां (कषाय एवं मोह) और कर्मपरमाणुओं में पारस्परिक सम्बन्ध है। जड कर्म परमाणुओं और आत्मा में बन्धन की दृष्टि से निमित्त और उपादान का सम्बन्ध माना गया है ।
जैन विचारक एकान्त रूप से न तो आत्मा को स्वतः ही बन्धन का कारण मानते हैं और न जड़ कर्मवर्गणाओं को, अपितु यह मानते हैं कि जड़ कर्मवर्गणाओं के निमित्त से आत्मा बन्ध करता है ।
जीव और कर्म का सम्बन्ध
जैन दर्शन में कर्म मूर्त है आत्मा अमूर्त है, तो प्रश्न उठता है कि मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा से कैसे सम्बन्धित होते है ? जैन विचारकों की दृष्टि से इस प्रश्न का समाधान यह हैं कि जैसे मूर्त घट अमूर्त आकाश के साथ सम्बन्धित होते है, वैसे ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के साथ सम्बन्धित होते है ।' विशेषावश्यकभाष्यकार ने इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है, जैसे अंगुली आदि मूर्त द्रव्य है किन्तु उससे आकुंचन-प्रसारण आदि अमूर्त क्रिया से समवाय सम्बन्ध हैं। वैसे ही जीव और कर्म का सम्बन्ध है तथा स्थूल शरीर मूर्त है, परन्तु उसका आत्मा से प्रत्यक्षतः सम्बन्ध है, भवान्तर में गमन करते हुए जीव का कार्मण शरीर का सम्बन्ध है तभी नए स्थूलशरीर का ग्रहण करना सम्भव है ।
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मुत्तस्सामुत्तिमत्ता जीवेण कंध हवेज्ज संबंधो।
सोम्म ! घडस्स व णभसा जंध वा दव्वस्स किरियाए । विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1635
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