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प्रमाद से आत्मा अपनी संस्कृति व गुणों को भूलकर पर-पदार्थों में, परभावों में बहने लगता है । "कुशल कार्यों में अनादर भाव का होना प्रमाद है" । यह भी पाँच प्रकार का है मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा ।'
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4.
कषाय : आत्मा के भीतरी कलुष परिणामों को कषाय कहते हैं । कष+आय इन दो शब्दों से बना है। 'कष्' का अर्थ है संसार, कर्म अथवा जन्म-मरण । जिसके द्वारा प्राणी कर्मों से बांधा जाता है, अथवा जिससे जीव पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है। मूल रूप से कषाय चार है 1. क्रोध 2. मान 3. माया 4. लोभ । इनकी तीव्रता और मन्दता के आधार पर 16 मनोदशाऐं हो जाती है। ये चार हैं 1. अनन्तानुबन्धी, 2 अप्रत्याख्यानावरण, 3 प्रत्याख्यानावरण एवं 4 संज्ज्वलन ।
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योग : कर्मबन्ध का पंचम कारण योग है। योग का अर्थ है- मन, वचन और काया की क्रियाऐं । इन तीनों की क्रियाओं से कर्मबद्ध आत्मा में पुनः पुनः कर्मों का संचय होता रहता है। योग दो प्रकार का होता है कषाय सहित और कषाय रहित । कषाय
सहित योग का कारण होने से साम्परायिक कहलाता है, ( संम्पराय संसार का पर्यायवाची हैं) कषायरहित योग ईर्यापथिक क्षणिक बन्ध का कारण होता है।
बन्धन के कारणों को संक्षेप में करने पर तीन कारण रहते हैं राग (आसक्ति), द्वेष और मोह । यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उसमें राग ही प्रमुख राग के कारण ही द्वेष होता है। आचार्य कुन्दकुन्द राग को बन्धन का प्रमुख कारण बताते हुए कहते हैं "आसक्त आत्मा ही कर्मबन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता है, यही जिन भगवान का उपदेश है।" मोह तथा राग परस्पर एक दूसरे के कारण है, अतः वास्तविक रूप में राग-द्वेष और मोह यह तीन ही जैन परम्परा में बन्ध के कारण है।
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"प्रमादः कुशलेष्वनादर" सर्वार्थसिद्ध, पृ. 374
2 डां. रतनलाल जैन, जैन कर्म सिद्धान्त और मनोविज्ञान
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." काय वाड् मनः कर्मयोगः " तत्वार्थसूत्र, 6/1
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समयसार, गाया 157
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यह सिद्ध होता है कि आत्मा के बन्धन का कारण मात्र आत्मा नहीं है, जिस प्रकार कुम्हार चक्र आदि निमित्तों के बिना मिट्टी स्वतः घट का निर्माण नहीं कर सकती, उसी प्रकार आत्मा बिना किसी बाह्य निमित्त के कोई भी ऐसी क्रिया नहीं कर सकता जो उसके बन्धन का कारण हो । वस्तुतः क्रोध आदि कषाय, राग, द्वेष और मोह आदि
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पृ. 97
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