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ये पाँच हेतु कर्मबन्ध के हेतु कैसे बनते हैं? यद्यपि आत्मा शुद्ध रूप में ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति आदि अनन्त गुणों का समूहरूप है। उसका कर्म के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाली मिथ्यात्व आदि चार या पाँच मुख्य शक्तियाँ हैं। ये पाँचों कर्म के सामान्य बन्धहेतु है। शुद्धात्मा को इन पाँच कारणों से कर्म लग जाते हैं। सर्वप्रथम कर्म का सम्बन्ध जुड़ता है - मिथ्या भ्रम से। तत्पश्चात् सांसारिक विषमभोगों का, हिंसादि विकारों का उपभोग करने से कर्म चिपकते हैं, अर्थात् कर्मबन्ध होता है। इसी प्रकार आत्मा प्रमाद, और असावधानी से प्रवृत्ति करता है, तब भी कर्म का बन्ध होता है तथा आत्मा में प्रादुर्भूत क्रोधादि से या राग-द्वेष से कर्म आत्मा में लगते हैं। इन चारों के साथ मन, वचन और काया की प्रवृति जुड जाती है, तब आत्मा कर्म से आबद्ध होती है।' 1. मिथ्यात्व : सत्य के प्रति विपर्यास अथवा सत्य दर्शन से विपरीत जानना, मानना
और श्रद्धा करना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व से आत्मा का मुख्य गुण-ज्ञान आवृत हो जाता है, प्राणी जानता तो है पर सम्यक् नहीं जान पाता है। यह अयथार्थ दृष्टिकोण है, यह पाँच प्रकार का है -
1. आभिग्रहिक 2. अनाभिग्रहिक 3. आभिनिवेशिक 4. सांशयिक
5. अनाभोगिक।
2. अविरति : जहां विरति न हो, (विरति का अर्थ व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग, नियम या संयम का स्वीकार तथा आचरण करना) यह अभर्यादित एवं असंयमित जीवन प्रणाली है। "आभ्यन्तर में, निजपरमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न, परम सुखामृत का अनुभव करते हुए भी, बाह्य विषय में अहिंसादि व्रतों को धारण करना ही अविरति है। यह पाँच प्रकार की है
1. हिंसा 2. झूठ 3. चोरी 4. कुशील 5. परिग्रह। 3. प्रमाद : समान्यतया समय का अनुपयोग या दुरूपयोग प्रमाद है। लक्ष्योन्मुख प्रयास के स्थान पर लक्ष्य विमुख प्रयास समय का दुरूपयोग है, जबकि प्रयास का अभाव अनुपयोग है। वस्तुतः प्रमाद आत्मचेतना का अभाव है।'
'कर्मविज्ञान, भाग 4, पृ. 124 -127 २ द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा 30, पृ. 88 जैन बौद्ध और गीता के आ.द. का तुलनात्मक अध्ययन, सागरमल जी जैन, पृ. 357
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