________________
आश्रव दो प्रकार का माना गया है 1. ईर्यापथिक और 2 साम्परायिक ।' कषायवृत्ति से ऊपर उठे हुए व्यक्ति की क्रियाओं के द्वारा जो आश्रव होता है, उसे ईर्यापथिक आश्रव कहते है । जिस प्रकार चलते हुए मार्ग में रही धूल पहले क्षण में सूखे वस्त्र पर लगती है, लेकिन गति के साथ ही दूसरे क्षण में अलग हो जाती है, उसी प्रकार कषायरहित क्रियाओं से पहले क्षण में आश्रय एवं बन्ध होता है और दूसरे क्षण में वह निर्जरित हो जाता है, तथा दूसरी जो क्रियाऐं कषायसहित है, वह साम्परायिक आश्रव है। साम्परायिक आश्रव आत्मा के स्वभाव को विभाव में बदल देता है।
तत्वार्थसूत्र में साम्परायिक आश्रव की निम्न 4 प्रकार की क्रियाऐं मानी गयी है
1-5 हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह ।
6-9
क्रोध, मान, माया और लोभ ।
पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन ।
24 साम्परायिक क्रियाएँ। 2
10-14
15-38
वैसे तो आश्रव का मूल कारण योग क्रिया है, किन्तु यह क्रिया रूप व्यापार स्वतः प्रसृत नहीं है उसके भी प्रेरक सूत्र है, जिन्हें आस्रवद्वार या बन्धहेतु कहा गया है। वे पाँच कारण इस प्रकार है मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । दोनों में पाँच कारण समान है, अन्तर यह है कि प्रथम क्षण में कर्मस्कन्धों का आगमन आस्रव होता है, आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षण में कर्मवर्गणाओं की आत्मप्रदेशों में अवस्थिति होती है, उसे बन्ध कहते हैं। यही दोनों मे अन्तर है। आश्रव में योग की प्रमुखता है और बन्ध में कषायादि की ।
जैसे राज्यसभा में अनुग्रह या निग्रह करने योग्य पुरुषों को प्रवेश कराने में राज्यकर्मचारी मुख्य होता है, किन्तु प्रवेश होने के पश्चात् उन व्यक्तियों का सम्मान करना या दण्ड देना इसमें राजाज्ञा प्रमुख होती है, इसी प्रकार योग की प्रमुखता से कर्मों के आगमन का द्वार खोल दिया जाता है, तथा समागत कर्मों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह होकर संश्लेष्ट होना या न होना, कषायादि की प्रमुखता से होता है।
1
तत्वार्थसूत्र 6/5
2 जैन, बौद्ध और गीता के आ. दर्शनों का तुलनातमक अध्ययन, सागरमल जी जैन, पृ. 357
Jain Education International
322
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.